उन दिनों लोकमान्य तिलक स्वराज्य-आन्दोलन बहुत सरगर्मी से चला रहे थे और हसरत मोहानी उनके समर्थक हो गए। शिक्षा समाप्त कर नौकरी आदि के चक्कर में ना पड़कर हसरत ने साहित्य और राजनैतिक विचारों से ओत-प्रोत ‘उर्दू-ए-मोअल्ला’ मासिक-पत्र 1904 में अलीगढ़ से निकालना प्रारम्भ कर दिया
‘हसरत जैसे निर्धन युवक के लिए पत्र-प्रकाशन करना कण्टकाकीर्ण मार्ग पर चलना था, परन्तु इरादों के मजबूत और धुन के पक्के ‘हसरत’ को विचलित करने का साहस किसमें था? उर्दू-ए-मोअल्ला बडे़ आबोताब से चलता रहा।
1908 में एक सज्ज्न का टर्की के संबंध में एक ऐसा लेख ‘उर्दू-ए-मोअल्ला’ में प्रकाशित हो गया, जो अंग्रेज़ सरकार की दृष्टि में ग़ैर कानूनी था। ऐसे विद्रोह को अलीगढ़ यूनीवर्सिटी के कर्ता-धर्ता कैसे बर्दाश्त कर सकते थे? उन्होंने जी खोलकर ‘हसरत’ के विरूद्ध गवाहियां दीं जिससे उन्हें दो साल के लिए जेल भेज दिया गया। मजबूर किए जान पर भी उन्होंने वास्तविक लेखक का नाम नहीं बताया और सारी जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली।
जेल में हसरत मोहानी को 20 सेर गेहूं रोज़ पीसने पड़ते थे। तभी उन्होंने यह शेर कहा कि,
“है मश्के-सुख़न जारी, चक्की की मश्क्कत भी
इक तुरफ़ा तमाशा है, ‘हसरत’ की तबीयत भी।।
साभार- शेर ओ सुखन
राजकमल प्रकाशन
अयोध्या प्रसाद गोयलीय
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1908 में...
17 घंटे पहले
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