प्रस्तुत है हिंदी के सुप्रसिद्ध कवि और लेखक 'कुंवर नारायण' की काव्य चेतना पर अभिषेक शर्मा का लेख-
कुंवर नारायण का काव्य मनुष्य और समाज के बीच रागात्मक संबंध के प्रसार का काव्य है। निस्संदेह प्रेम ही वह तत्व है जो मनुष्य को मनुष्य से जोड़ता है। कवि का स्पष्ट मत है कि दुनिया में भाषाएं अनेक हैं किंतु प्यार की भाषा पूरी दुनिया में सर्वथा एक ही है, और इसी के द्वारा 'वसुधैव कुटुंबकम्' की भावना का प्रचार-प्रसार होता है। कुंवर नारायण का काव्य मानवीय विकृतियों और दुर्बलताओं के विनाश का काव्य है। मानवीय विश्वास की सहज बहाली, सत्य की स्थापना और प्रेम का प्रसार उनकी रचनाशीलता का मूल धर्म है। 'एक अजीब-सी मुश्किल' कविता में वे लिखते हैं-
एक अजीब सी मुश्किल में हूं इन दिनों-
मेरी भरपूर नफरत कर सकने की ताकत
दिनों-दिन क्षीण पड़ती जा रही,
मुसलमानों से नफ़रत करने चलता
तो सामने ग़ालिब आकर खड़े हो जाते
अब आप ही बताइए किसी की कुछ चलती है
उनके सामने?
अंग्रेजों से नफ़रत करना चाहता
जिन्होंने दो सदी हम पर राज किया
तो शेक्सपीयर आड़े आ जाते
जिनके मुझ पर न जाने कितने अहसान हैं
और वह प्रेमिका
जिससे मुझे पहला धोखा हुआ था
मिल जाए तो उसका खून कर दूं!
मिलती भी है, मगर
कभी मित्र, कभी मां, कभी बहन की तरह
तो प्यार का घूंट पीकर रह जाता
हर समय
पागलों की तरह भटकता रहता
कि कहीं कोई ऐसा मिल जाए
जिससे भरपूर नफरत कर के
अपना जी हलका कर लूं!
पर होता है इसका ठीक उल्टा
कोई-न-कोई, कहीं-न-कहीं, कभी-न-कभी
ऐसा मिल जाता
जिससे प्यार किए बिना रह ही नहीं पाता
दिनों-दिन मेरा यह प्रेम-रोग बढ़ता ही जा रहा
और इस वहम ने पक्की जड़ पकड़ ली है
कि यह प्रेम किसी दिन मुझे स्वर्ग दिखाकर ही रहेगा
नामवर सिंह ने डाॅ. देवेन्द्र चौबे को दिए एक इंटरव्यू में कवि कुंवर नारायण को अपना प्रिय आलोचक बताया था। डाॅ. नामवर सिंह के आलोचनात्मक प्रतिमानों की निर्मिति में कवि कुंवर नारायण के साहित्य का भी बहुत बड़ा योगदान है। नामवर जी उनकी कविताओं में सामाजिक आश्वस्ति पाते थे।
मानव जाति की जिजीविषा शक्ति को अपने लेखकीय जीवन में विशेष महत्व देते हुए कवि कुंवर नारायण मानव जाति और साहित्य को एक- दूसरे का पूरक मानते हैं। प्रेम कुमार से बातचीत में वे कहते हैं कि- '' जीवन और साहित्य में जहां ठहराव या गतिरोध है वह विचारों द्वारा ही आंदोलित हो सकता है।'' कुंवर नारायण का लेखन एक तरह से तत्वान्वेषी है। वे अपने लिखे का हमेशा मूल्यांकन भी करते रहे। उनके व्यक्तित्व में लेखन और आत्मालोचन की प्रवृत्ति समान रूप से विद्यमान है।
अपनी कविता 'उत्तरदायित्व' में आत्मालोचन के भाव पिरोते हुए लिखते हैं-
जो भी रचा है मैंने
उसी का हिस्सा हूं
पूरी तरह मौजूद है उसमें
मेरे अंतर्विरोध और मेरा अंत:करण
हर तरह उत्तरदायी हूं
अपनी रची दुनिया के लिए
अवगत हूं उन तमाम कमियों और अतियों की
निरंतर आवाजाही से
जिनके लिए छूट गयी हैं गुंजाइशें
मेरे अज्ञान या मेरी लापरवाही से
अपनी अहंकारहीनता और लोकोन्मुखी अभिरुचियों के कारण कवि कुंवर नारायण साहित्य और कला को सदैव लोक हितकारी मानते रहे हैं। अपने इस विचार की पुष्टि के लिए वे भारत के मध्यकालीन साहित्य का हवाला देते हैं। उन्हें जायसी, कबीर, सूर, तुलसी, मीरा और घनानंद के आत्मसंघर्ष याद आते हैं। वे राजकीय अनुकंपा और कुदृष्टि के भेद को स्पष्ट रूप से जीवन और मृत्यु का भेद मानते हैं।
मध्यकालीन साहित्य के कालजयी रचनाकारों के अदम्य साहस के महत्व को दर्ज करते हुए लिखते हैं कि- '' इससे कहीं ज्यादा मुश्किल वक़्तों को साहित्य झेल चुका है और उसने किसी तरह मनुष्यता के सर्वोच्च मूल्यों को उजागर रखने की युक्तियां निकाली हैं। राजनैतिक दृष्टि से भारत का मध्यकाल भयानक उथल-पुथल, युद्धों और क्रूरताओं का युग था। पर यही वह समय भी था जब 'भक्तिकाल' ने नैतिकता और सौंदर्य के उन शिखरों को छुआ जो आज भी भारतीय जनमानस, भाषाओं और कलाओं में रचे-बसे हैं। हजार साल तक कविता उस महान सांस्कृतिक, धार्मिकऔर नैतिक आंदोलनों का वाहक रही जिसका असर आज भी हमारी हिंदुस्तानियत की पहचान पर अमिट है। दुनिया के इतिहास में कविता की जीवन-शक्ति का इतना बड़ा उदाहरण मिलना मुश्किल है। एक उजड़ती और तहस-नहस दिल्ली में भी अगर मीर और ग़ालिब संभव हो सके तो यकीनन साहित्य आने वाले समय में उससे भी सार्थक रिश्ता बना सकने में समर्थ होगा।''
साहित्य की अनश्वरता पर बल देते हुए कवि कुंवर नारायण कहते हैं कि-
एक बार ख़बर उड़ी
कि कविता अब कविता नहीं रही
और यूं फैली
कि कविता अब नहीं रही !
यक़ीन करने वालों ने यक़ीन कर लिया
कि कविता मर गई,
लेकिन शक़ करने वालों ने शक़ किया
कि ऐसा हो ही नहीं सकता
और इस तरह बच गई कविता की जान
ऐसा पहली बार नहीं हुआ
कि यक़ीनों की जल्दबाज़ी से
महज़ एक शक़ ने बचा लिया हो
किसी बेगुनाह को ।
वस्तुत: आज हम 'दर्शन' नहीं प्रदर्शन के युग में जी रहे हैं। मनुष्य छद्म आचरणों का जैसे पुतला बन गया है। इतना ही नहीं संस्कारों और मर्यादाओं से जुड़े शब्द भी अपने विशिष्ट अर्थों से च्युत होते जा रहे हैं। वर्तमान समाज सद्विचारों से शून्य होता जा रहा है। इसका एक उदाहरण देखिए-
अर्थ से अर्थात् में बदलती जा रही हैं
शब्द की ध्वनियां
जब कहता चौखट तो लगता
खट से कुछ बंद होने का सन्नाटा
और गहरा हो गया
मैं अंदर हूं कहता तो लगता
बाहर से ताला लगाकर कहीं और जा रहा हूं
मानव जीवन की महिमा को सदैव उद्घाटित करने वाले कवि और लेखक कुंवर नारायण मनुष्य को जीवन में अनुरक्त होने का संदेश देते हैं न कि विरक्त होने का या उससे पलायन होने का। 'एक यात्रा के दौरान' कविता में कवि मनुष्य के अकेलेपन को जीवन का विष मानता है। वस्तुत: अकेलापन ही वह भावबोध है जो मनुष्य को सामाजिक स्वीकार्यता से वंचित रखता है। अकेलेपन की दवा सुसंगति है। हमारे यहां प्रचलित कहावत है कि संगत से गुण होत हैं संगत से गुण जात। तुसलीदास ने तो मानव विवेक की उत्पत्ति ही 'सत्संग' से मानी है। इसलिए मनुष्य को अकेलेपन की पीड़ा से बचने के लिए सत्संगियों का ही सहारा लेना चाहिए। मनुष्य की मिलनसार प्रवृत्ति किस तरह उसे सत्संग तक पहुंचाती है, इसका एक उदाहरण देखिए-
कभी-कभी दूसरों का साथ होना मात्र
हमें कृतज्ञ करता है
दूसरों के साथ होने मात्र के प्रति
किसी का सीट बराबर जगह दे देना भी
हमें विश्वास दिलाता कि दुनिया बहुत बड़ी है
जब अटैची पर एक पकड़ भी
ज़िंदगी पर पकड़ मालूम होती है
और दूसरों के लिए चिंता
अपने लिए चिंताओं से मुक्ति
कविता की ऐसी ही लोकोन्मुखता पर विचार करते हुए आचार्य रामचंद्र शुक्ल कहते हैं- ''मनुष्य के लिए कविता इतनी प्रयोजनीय वस्तु है कि संसार की सभ्य-असभ्य सभी जातियों में किसी न किसी रूप में पायी जाती है। चाहे इतिहास न हो, विज्ञान न हो, दर्शन न हो, पर कविता का प्रचार अवश्य रहेगा।'' इसी की अंत:प्रकृति में मनुष्यता को समय-समय पर जगाते रहने के लिए कविता मनुष्य जाति के साथ लगी चली आ रही है और चली चलेगी । जानवरों को इसकी जरूरत नहीं।''
कुंवर नारायण इन्हीं कथनों के माध्यम से मानव जाति के उत्थान के लिए कविता की भूमिका को और गहराई से स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि-
मेरे काव्य के इन मानस परोक्षों से
एक अपना आकाश रचो
मेरे असंतुष्ट शब्दों को लो
और कला के इस विदीर्ण पूर्वग्रह मात्र को
सौंदर्य का कोई कलेवर दो
कुंवर नारायण की कविताएं ऐसे नूतन मानवीय सभ्यताओं का विकास करना चाहती हैं जिससे बालकोचित् निश्छलता के साथ-साथ प्रेम और सहानुभूति के भी अशेष भाव भरे पड़ें हों।
(लेखक रेवेंशा विश्वविद्यालय, कटक, ओड़िशा के भाषा संस्थान में सहायक प्रोफेसर हैं।)
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1 month ago
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