वसंत पंचमी के साथ महाकवि निराला की याद वैसे ही जुड़ी हुई है, जैसे वे दोनों दो शरीर एक आत्मा हों। निराला ने ‘हिंदी के सुमनों’ को संबोधित करते हुए जो कविता लिखी है, उसमें अपने को ‘वसंत दूत’ ही कहा है। एक जमाने में वसंत पर मौसमी कविताएं लिखना आम था, पर इस विषय पर सबसे श्रेष्ठ गीत निराला ने ही लिखे हैं। उनके जीवन में अभाव ही अभाव रहे, पर उनकी आत्मा में वसंत की खुशबू रची-बसी रही। इसीलिए हिंदी जगत उन्हें ‘महाप्राण’ मानता है।
जिसके पास कोई रस नहीं होता, उसके पास अभाव रस होता है। हिंदी लेखकों में अभाव रस की लंबी परंपरा रही है। हिंदी के सबसे बड़े कवि तुलसीदास के जीवन में अभाव ही अभाव था। निराला भी जीवन भर अभाव रस से घिरे रहे। बाद में यह परंपरा मुक्तिबोध में प्रकट हुई। नागार्जुन और शमशेर बहादुर सिंह ने भी शिद्दत से जाना कि अभाव क्या होता है। भाव कभी-कभी आता है। आता है, तो जाता भी है। अभाव रस शाश्वत है। कहते हैं, हम सब का सिरजनहार भी अकेलेपन से ऊब गया था, तब उसने अपने कौतुक के लिए यह सृष्टि बनाई। तब से वह अपनी सृष्टि में रमा हुआ है।
फिर भी क्या वह अभाव रस से मुक्त हो गया होगा? मुझे शक है। शक इसलिए है कि उसकी बनाई सृष्टि में प्रत्येक प्राणी अभाव रस से आप्लावित दिखाई देता है। जिसके पास सब कुछ है, वह भी प्रेम की खोज में लगा रहता है। अतः ईश्वर की खोज भी अधूरी ही होगी।
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