आप अपनी कविता सिर्फ अमर उजाला एप के माध्यम से ही भेज सकते हैं

बेहतर अनुभव के लिए एप का उपयोग करें

विज्ञापन

न जाने क्यूँ

                
                                                         
                            न जाने क्यूँ मिरे हरदम सितारे रूठ जाते हैं
                                                                 
                            
जरा-सा सच कहूँ तो दोस्त सारे रूठ जाते हैं।

कसर रक्खी किसी ने कब मुझे ताने सुनाने में
हँसी उनपे जो आ जाए बिचारे रूठ जाते हैं।

परिंदा हूँ न जाने किस तरफ उड़ कर निकल जाऊँ
कि अब ये पंख भी किस्मत के मारे रूठ जाते हैं।

बहारों में भी मेरे दिल की दुनिया है उदासी क्यूँ
मिरे ही वास्ते क्यूँ सब नज़ारे रूठ जाते हैं।

मुझे पत्थर बना के रख दिया मेरे उसूलो ने
यही होता है सावन से शरारे रूठ जाते हैं।
-पंडित अनिल
- हम उम्मीद करते हैं कि यह पाठक की स्वरचित रचना है। अपनी रचना भेजने के लिए यहां क्लिक करें।
3 दिन पहले

कमेंट

कमेंट X

😊अति सुंदर 😎बहुत खूब 👌अति उत्तम भाव 👍बहुत बढ़िया.. 🤩लाजवाब 🤩बेहतरीन 🙌क्या खूब कहा 😔बहुत मार्मिक 😀वाह! वाह! क्या बात है! 🤗शानदार 👌गजब 🙏छा गये आप 👏तालियां ✌शाबाश 😍जबरदस्त
विज्ञापन
X
बेहतर अनुभव के लिए
4.3
ब्राउज़र में ही

अब मिलेगी लेटेस्ट, ट्रेंडिंग और ब्रेकिंग न्यूज
आपके व्हाट्सएप पर