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लड़खड़ा के चल

                
                                                         
                            

सफर हो रात में तो चाँद से आँखें मिला के चल
सूरज की छाँव में आया तो फिर आँखें झुका के चल

यही चाहत मेरी ना हुस्न को रुस्वा किया जाए
अदाएं जब तेरी सुंदर कली तो फिर दिखा के चल

यहाँ सब टूटते तारों से भी मांगेगे कुछ ना कुछ
कहीं तू चाँद सा रौशन है तो फिर बच बचा के चल

घड़ी में रंज के हँसना कहीं मुमकिन नहीं लेकिन
खुशी के वक्त में आँखों में कई आँसू दबा के चल

किये सौदे जो खुशियों के तेरे गम के लिये मैंने
नहीं जब मेरे हक में इश्क तो फिर दिल दुखा के चल

'शुभम' अपने कभी बाहों में जाना थाम ले तुमको
नशे में नींद के तू भी कभी तो लड़खड़ा के चल ।


-हमें विश्वास है कि हमारे पाठक स्वरचित रचनाएं ही इस कॉलम के तहत प्रकाशित होने के लिए भेजते हैं। हमारे इस सम्मानित पाठक का भी दावा है कि यह रचना स्वरचित है। 

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4 वर्ष पहले

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