ये सूरते-हाल नफ़रत ने बिगाड़ा,
कभी इंसानी फ़ितरत ने बिगाड़ा।
कभी ज़िन्दगी में था चैन-ओ-क़रार,
मयस्सर हुई ज़ियादत ने बिगाड़ा।
हम ऐसे न थे, नज़र आते हैं जैसे,
हमें ज़माने की मलामत ने बिगाड़ा।
भरोसा नहीं है किसी को किसी पर,
रिश्तों को ऐसी हालत ने बिगाड़ा।
कभी तो ये माहौल हमने बिगाड़ा,
कभी हमारी सियासत ने बिगाड़ा।
ये तन्हाइयाँ और ये ग़ुर्बत "शमीम"",
हमें तो नाकाम उल्फ़त ने बिगाड़ा।
- देवेन्द्र सचदेवा
- हम उम्मीद करते हैं कि यह पाठक की स्वरचित रचना है। अपनी रचना भेजने के लिए यहां क्लिक करें।
एक दिन पहले
कमेंट
कमेंट X