अपने विचारों, भावनाओं और संवेदनाओं को व्यक्त करने का सबसे सशक्त माध्यम मातृभाषा है। इसी के जरिये हम अपनी बात को सहजता और सुगमता से दूसरों तक पहुंचा पाते हैं। हिंदी की लोकप्रियता और पाठकों से उसके दिली रिश्तों को देखते हुए उसके प्रचार-प्रसार के लिए अमर उजाला ने ‘हिंदी हैं हम’ अभियान की शुरुआत की है। इस कड़ी में साहित्यकारों के लेखकीय अवदानों को अमर उजाला और अमर उजाला काव्य #हिंदीहैंहम श्रृंखला के तहत पाठकों तक पहुंचाने का प्रयास कर रहा है। प्रस्तुत है डाॅ. ओम निश्चल का कैलाश वाजपेयी से मुलाकात पर आधारित संस्मरणात्मक लेख-
उन्हें जब जब पढ़ता रहा हूँ, सिहर जाता रहा हूँ। कभी अपनी पहली किताब लेकर ओशो उनसे भूमिका लिखवाने आए थे। उनके गीतों का स्वर इतना विदग्ध सुरीला और वेधक था कि सुन कर एक दूसरी दुनिया के गवाक्ष खुल जाते थे। सधा हुआ स्वर, उसकी धात्विक चमक चेतना के उजाले में गुंजलक की तरह व्याप जाती थी। ऐसे ही विरल कवि थे कैलाश वाजपेयी।
जग सुने न इतना धीरे गा---मेरे इसरार पर यह गीत उन्होंने सुनाया था जिसकी काफी दिनों मैं नकल करता रहा कि उस स्वर की ऊँचाई और उसके विमोहक अनुनाद को अपने कंठ में उतार सकूँ। यों तो कविता की समझ ठीक से विकसित भी न हुई थी कि उनके जिस संग्रह का साक्षात्कार हुआ वह 'महास्वप्न का मध्यांतर' था जिसका आवरण तब के शीर्ष कलाकार सुकुमार चटर्जी ने बनाया था। संग्रह काफी हद तक समझ से परे था पर लखनऊ से दिल्ली आने के बाद उनके काव्य में रुचि पैदा होनी शुरू हुई।
उनके ही एक समकालीन लखनऊ के कवि दिवाकर जिनका बाद के वर्षों में क्षय रोग से निधन हो गया, उनके बारे में बताया करते थे। उनके विपुल अध्ययन, चिंतन और कवित्व की चर्चा करते थे वे। फिर एक ऐसा समय आया वे दूरदर्शन के साहित्यिक कार्यक्रमों के केंद्र में हुआ करते। उनका चलना, उनका बोलना सबमें एक अलग सी छवि दिखती। फिर उनके कृतित्व से धीरे-धीरे परिचय शुरू हुआ तो आज तक अबाध गति से चलता आ रहा है।
इस बीच उनकी कई कृतियों पर लिखने का सौभाग्य मिला। 'हवा में हस्ताक्षर', 'है कुछ दीखे' और 'डूबा-सा अनडूबा तारा' व 'हंस अकेला'। वे समीक्षाएं पढ़ कर फोन करते। सराहते । धीरे-धीरे उनके मन के किसी कोने में यह इच्छा पैदा हुई कि मैं उन पर कोई काम करूं। उनका मन और अपनी अव्याहत इच्छा के वशीभूत उनके कृतित्व की ओर गंभीरता से आकृष्ट हुआ।
इस बीच पटना व बनारस स्थानांतरण के बाद भी दिल्ली आने पर उनसे मिलना-जुलना जारी रहा। एक व्यवस्थित-सी बातचीत के लिए लगभग एक सौ सवाल उन्हें भेजे और मनुहार करता रहा कि उसके उत्तर तैयार कर दें तो वे उन पर काम करते वक्त काम आएंगे। पर वे इस कदर अपनी रुचियों में मशरूफ रहे कि उन्हें समय न मिला न मुझे ही और एक दिन वे इस असार संसार से विदा हो गए। अपने शब्द, अपनी सत्ता, अनत्ता को ज्यों का त्यों छोड़ कर। वे सवाल मेरे पास अब भी हैं अनुत्तरित।
उन पर काम करने की इच्छा से उनके न रहने पर उनकी सहधर्मिणी सुधी रूपा वाजपेयी से मिला तो लगा बरसों से परिचित हैं। यों उनसे मिलने के दौरान कभी भी मेरी भेंट न हुई । पर 30 जुलाई 2017 को भेंट में उन्होंने कहा कि ओम जी जो पूछना है पूछ लीजिए जो करना है कर डालिए।
समय बहुत कम है और अचानक एक दिन पता चला कि वे नहीं रहीं। उनके न रहने पर उनकी बेटी अनन्या से बातचीत हुई। उनका सारा साहित्य लगभग मेरे पास था। कई पुस्तकें समय समय पर कैलाश जी ने मुझे दी थीं। 'हंस अकेला' की काॅपी रूपा जी ने अपने हस्ताक्षर कर के दी। बेटी अनन्या वाजपेयी ने 'कवि के कथानक' की प्रति भिजवाई।
अब जब उन पर यह काम पूरा हो चुका है, मुझे लग रहा है कि किसी कवि को किसी भी अध्ययन से पूरा व्यक्त कर पाना कितना असंभव है। उनके भीतर विश्व की विपुल यात्राओं, अनेक महापुरुषों, कवियों, लेखकों से हुई मुलाकातों, भारतीय व विश्व वाड्.मय के प्रभूत अध्ययन का सार समाहित था।
ग्रंथों, कृतियों आदि से निकली आख्यायिकाओं की एक पुस्तक ही उनके मरणोपरांत प्रकाशित हुई जिसे रूपा वाजपेयी जी ने संकलित अनूदित और संपादित किया। जीवन के सार सत्व की समाहिति इन आख्यायिकाओं में प्रतिबिम्बित होती है।
उनकी कविता दार्शनिक-आध्यात्मिक बोध की कविता है। संसार में रह कर भी गैरिकवसना चिंतन की एक भाव भीनी पृष्ठभूमि उनके यहां मिलती है। आजादी के बाद के मोहभंग की सघन निराशा के बीज भी उनकी कविताओं में छितरे बिखरे हैं। उनकी लाइब्रेरी सघन थी। उसमें भारतीय चिंतन एवं दर्शन के अलावा पाश्चात्य कृतियों की एक बड़ी संख्या शामिल थी।
अपने पाठ और पाठ्यबल में कविवर कैलाश वाजपेयी हमेशा अद्वितीय रहे। संक्रांत, तीसरा अंधेरा, देहांत से हट कर, महास्वप्न का मध्यांतर, भविष्य घट रहा है, सूफीनामा, हवा में हस्ताक्षर, डूबा-सा अनडूबा तारा और 'हंस अकेला' तक उनके काव्य का प्रशस्त पाट हमारे सामने है ।
गद्य, पद्य, प्राच्य - पाश्तात्य-पौर्वात्य के उनके अकूत पठन पाठन ने उनके चित्त को बहुविध मानव संस्कृतियों की विशिष्टताओं के साथ आह्लादित किया है। उनके कंठ से निकली हुई आवाज़ एक मंत्र पाठ जैसा सुकून और प्रभाव पैदा करती थी। उनके गीत का स्वर हवा को चीर कर बहता हुआ प्रतीत होता था-बिल्कुल हवा में हस्ताक्षर जैसा। उनका आलाप कविता और गीत में संगीत के किसी अलक्षित प्रभाव का नियामक लगता था।
वे होते थे तो एक साथ वर्तमान भूत और भविष्य में विचरण करते थे। उनकी कविताओं का शुरुआती मोहभंग कैसे उनके चिंतन की वैष्णवता में समाहित होता हुआ युगपत प्रवाह का हिस्सा बनता गया है उनके समकालीन इसके साक्षी हैं।
जब उनके जीवन और कवि वैशिष्ट्य के अथ से इति तक आ गया हूँ, वे याद आते हैं। वे होते तो कई अनुत्तरित सवालों के उत्तर मिल जाते, जिन्हें दरअसल कोई और नहीं दे सकता। किसी कवि को सम्यक् रूप से उसके सिवा भला कौन जान सकता है। केवल उसकी भौतिक उपस्थितियों का साक्षी होकर उसके बाहरी छिलके को समझा जा सकता है। वे नहीं हैं पर उनके शब्द हैं जिन्हें हम यशाशक्य डिकोड कर उनके कवि मन की पहचान कर सकते हैं।
उनके विपुल साहित्य को पढ़ते हुए उनके मन के जटिल अंतर्द्वद्वों की गांठें खुलती हैं। हिंदी आलोचना ने यद्यपि उन्हें यथोचित मान नहीं दिया किन्तु उनके कवि से प्रतिकृत लोगों की संख्या कम नहीं है। उनकी अंतिम कृति 'हंस अकेला' का आवरण मनोरम है। एक प्रतीकात्मक हंस जैसे अनुभव के जल में संतरण कर रहा हो। हंस तो अकेला ही होता है वैसे ही जैसे वे तमाम कवियों के समकालीन होते हुए भी अपने मिजाज और अपने कृतित्व में सबसे अलग थे।
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1 year ago
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