आप अपनी कविता सिर्फ अमर उजाला एप के माध्यम से ही भेज सकते हैं

बेहतर अनुभव के लिए एप का उपयोग करें

विज्ञापन

जिंदा लाश

                
                                                         
                            कभी-कभी ज़िंदगी ऐसे मुक़ाम पर लाती है,
                                                                 
                            
जहाँ साँसें तो चलती हैं, पर रूह थम जाती है।

चेहरे पर मुस्कान रखनी पड़ती है ज़बरन,
दिल में हर ख़ुशी की रौशनी बुझ जाती है।

भीड़ में रहकर भी तनहा रह जाता है कोई,
अपनों के बीच भी पराया कहलाता है कोई।

हर आवाज़ अब शोर लगने लगती है,
हर ख़्वाब हकीक़त से डरने लगती है।

आईने में खुद से नज़रें मिलती नहीं,
अपने ही साये से पहचान होती नहीं।

वक़्त चलता है मगर एहसास मर जाता है,
इंसान जिन्दा रहकर भी ज़िंदा लाश बन जाता है।

पर फिर कहीं एक किरण दिल को छू जाती है,
मिट्टी में भी एक कली मुस्कुराती है।

समझ आता है — ज़िंदगी हारती नहीं,
बस थक कर थोड़ी देर ठहर जाती है। 
- हम उम्मीद करते हैं कि यह पाठक की स्वरचित रचना है। अपनी रचना भेजने के लिए यहां क्लिक करें।
5 घंटे पहले

कमेंट

कमेंट X

😊अति सुंदर 😎बहुत खूब 👌अति उत्तम भाव 👍बहुत बढ़िया.. 🤩लाजवाब 🤩बेहतरीन 🙌क्या खूब कहा 😔बहुत मार्मिक 😀वाह! वाह! क्या बात है! 🤗शानदार 👌गजब 🙏छा गये आप 👏तालियां ✌शाबाश 😍जबरदस्त
विज्ञापन
X
बेहतर अनुभव के लिए
4.3
ब्राउज़र में ही

अब मिलेगी लेटेस्ट, ट्रेंडिंग और ब्रेकिंग न्यूज
आपके व्हाट्सएप पर