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पत्थरों का शहर

                
                                                         
                            कोई किसी के मन को
                                                                 
                            
मानता ही नहीं अब
सबकी ऐसी जिंदगी
मन की मनमानी है

रिश्ते और उम्र की भी
अदब चली जा रही
क्षीण होती संयम भी
दुस्साहसी जवानी है

हर लम्हा घायल है
मायूस हर मंजर
सबकी आंखों में यहां
लाचारी भरी पानी है

कहने को दिल,बस
कोमल और चंचल है
धड़कन कठोर है
लोगों की ये कहानी है

गिनती क्या करना है
स्वयं पांव के छालों को
पत्थरों के शहर में
जिंदगी ही बितानी है।।
 
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एक घंटा पहले

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