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उजाला तेरी यादों का

                
                                                         
                            कल तक तो दरमियाँ थीं क़ुर्बतें आज दूरी सी रह गई
                                                                 
                            
रिश्ते को निभाने की  जैसे कोई  मजबूरी  सी रह गई

जान थे कल तक जो एक-दूजे की, आज हैं अजनबी
मुकम्मल  होने से पहले ही  दास्ताँ अधूरी  सी रह गई

ख़ामोशी इख़्तियार  कर ली है ज़ुबाँ ने  अब ख़ुशी से
आपसी गुफ़्तगू भी तो शायद  गैर-ज़रूरी सी रह गई

अरमानों को ज़ब्त करके  जीना आसान  भी तो नहीं
उजाला तेरी यादों का और यादों की कस्तूरी  रह गई

अना को ख़ुद्दारी भी आख़िर  कैसे कह दूँ मैं 'पारुल'
मोहब्बत बन कर  ख़ुशामद और  जी-हज़ूरी  रह गई
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एक दिन पहले

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