हुआ शहर खामोश,
नफ़रत के साएं में।
दिल्ली के आँगन में,
लपटे उठने लगी।
देखकर लाल किला,
नम भरी आँखों से।
धमाके के शोर में,
लाशों के चिथड़े हुए ।
जो थी चहल–पहल,
बाज़ार की मुस्कान में।
बम के धमके से,
श्मशान सी बन गईं ।
अमन को राख कर,
डर में बदल दिया।
हुआ शहर ख़ामोश,
नफ़रत के साएं में।
धुएं की दुआ ने,
निशा की वफ़ा को,
चीखों के साएं में,
रूह को कपा दिया।
सफ़र की सड़क पर,
ग़मो का आगाज़ हुआ।
मोहब्बत के मोड़ को,
लपटों ने राख किया।
तबाही की खुशबू में,
जलता हुआ इंसान मिला।
टूट कर इमारतें,
राख में तब्दील हुई।
हुआ शहर खामोश,
नफ़रत के साएं में।
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