१५ को ४७ में था उदित हुआ यह देश,
सोचे थे परिभाषा होगी होगा नव परिवेश,
स्वतंत्रता का सूर्य उग रहा करके नव शृंगार,
सब हर्षित थे पा स्वतंत्रता गालियाँ दिखे बहार।
बापू का यह दिवास्वप्न था स्वर्णभूमि हो देश,
शिष्ट समृद्ध यहाँ लोग रहेंगे यह था स्वप्न सुभेष,
वे थे संत धर्म था उनका सत्य अहिंसा मार्ग,
मन में कभी द्वेष ना रहता रोके चले कुमार्ग।
क्या परिभाषा रह गई दिवास्वप्न की आज,
आज कलंकित कुंठित रह गया उनका स्वप्न समाज,
संविधान से पाके हक़ हमने जो चुने किरदार,
जिनसे मिलकर गठित हुई अपनी पूरी सरकार।
क्या सरकार क्या रहा इसमें मुठ्ठी भर गद्दार,
जो फिर भेष बदल कर करते है हम तुम पर राज,
लोकतंत्र क्या लोकतंत्र यह है दुनियाँ का आज,
हर नेता आगे चलकर बन जाता है गद्दार।
नेता थे वे नेता जिनका देशभक्ति उद्देश्य,
देश मात्र कल्याण को सोचे छोड़े घर परिवेश,
आज के नेता ख़ुद का सोचे ध्येय मात्र है धन,
चाहे निर्धन हो जाये सारे भारत के जन।
जन जन में निर्धनता है शोषित हैं ये लोग,
वाक् शक्ति उड़ गई धारा से करता हूँ मैं खोज,
एक करे शोषण दूजे का यही आज का रंग,
सब अपने में भ्रष्ट है यारों बचा नहीं सज्जन।
आज समाज पाप को अपना बना चुका है धर्म,
दूजे के दुख देख के हंसना यही है इसका कर्म,
कोई किसी का नहीं है भाई सबके मन में द्वेष,
राम की पावन धरती का क्या बना लिया है भेष।
भेष दिखेतो भूसा दिखता कहीं नहीं सुख चैन,
जन भागे दौलत के पीछे चाहे दिन या रैन।
स्वर्ण भूमि की स्वर्णिम चिड़िया उड़ गई स्वप्न सुदेश,
पर फिर भी इस देश का गौरव बचा हुआ है शेष।
गौरव है इस देश की मिट्टी इस पर बसा किसान,
जो मेहनत करके भरता सारे भारत में प्राण,
गौरव है इस देश की सेना चतुरंगिणी महावीर,
प्यार करे भारत माता से इसका एक एक वीर।
गौरव है कि बोली भाषा धर्म सभी तो अनेक हैं
पर मुट्ठी में बंधा हुआ हर भारत वासी एक है
गौरव है इस देश के बच्चे हुनर से विश्व अचंभित है
ज्ञान विज्ञान व्यापार चिकित्सा इनका कार्य चमत्कृत है
गौरव है हम गाड़ के आये एक तिरंगा चाँद पर
मंगल का चक्कर लगा लिया है है गौरव इस बात पर
ये है भूमि नानक गौतम की अद्भुत इसके लोग
धन्य मानता एक एक पत्ता जो बसता इस लोक।
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4 सप्ताह पहले
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