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मुसाफिरों का पता नहीं होता

                
                                                         
                            तकल्लुफ से सोच रही थी तुम्हारे बारे में,
                                                                 
                            
कहीं तुम्हारे बारे में सोचना सज़ा तो नहीं होता।

डर तुम्हें भी है, और मुझे भी...
डर के शहर में कोई आबाद तो नहीं होता।

मुसाफ़िर हूँ मैं, और मुसाफ़िर की तरह मिली थी,
और ठीक सटीक - तुम्हें मेरी लाइन याद भी थी।

पता पूछ रहे थे तुम मेरे ठिकाने का,
पर मुसाफ़िरों का कोई पता तो नहीं होता।

ढूँढ़ना चाहो, तो ढूँढ़ने आना मुझे,
हर ढूँढ़ने वाले के पास - मिलने वाले का पता तो नहीं होता।

चलो, ख़त्म ही सही...
ख़त्म ही सही जो था हवा के झोंके की तरह,
झोंका खिड़की पर ठहर जाए - ऐसा तो नहीं होता।
- शिवानी यादव
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एक घंटा पहले

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