माँ देखो ना
दुनिया कितनी बदल गई है,
मानो कि कोने-कोने में
खुशहाली सी छा गई है।
माँ, तेरे काले टीके की
अब कोई ज़रूरत ही नहीं,
किसी की बुरी नज़र से
अब कोई ख़ौफ़ नहीं।
गली में जाती हूँ तो
सिर्फ़ कुत्तों के भौंकने की
आवाज़ से डर तो लगता है,
पर गुंडों-आवारों के छेड़ने के डर से
मानो छुटकारा मिल गया है।
माँ
अब अख़बारों के पन्नों पर
निर्भया, प्रियंका केस को
दोहराया नहीं जाता है,
शायद बलात्कारियों के दिल में
इंसानियत जाग उठी है।
माँ
देख, उस लीला मौसी के पति
शराब पीकर अब मारता नहीं उसे,
अंचल दी की जान को कोई ख़तरा
नहीं है अपने ससुराल वालों से।
कोई दूल्हा मंडप नहीं छोड़ता
दहेज के लिए,
कोई बेटी वजह नहीं बनती
अपने मा बाबा के आशुओं के लिए ।
वो पाखंडी साधु बाबा,
जो ख़ुद को भगवान मानता था,
सफ़ेद वस्त्रों के पीछे
एक लोलुप आत्मा छुपा था,
अंतरात्मा की पुकार शायद
उसके कानों में गूँज उठी,
श्रद्धा, भक्ति और प्रेम को
जीवन का सार मान लिया।
माँ, सिर्फ़ इतना ही नहीं,
छोटी को अकेले बाहर भेजने से
तू कतराती नहीं है,
भाई को बॉडीगार्ड बनकर
हमारे साथ घूमना नहीं पड़ता है।
मीनू, मीनू, मीनू!!!
तू उठ, घड़ी देख,
सुबह 7:30 बज चुके हैं,
तुझे ऑफिस नहीं जाना है?
या यूहीं बिस्तर पर पड़े रहना है।
माँ,
क्या मैं सो रही थी?
और मैंने जो सब देखा,
क्या वो सब था झूठ ही ?
मीनू,
वो होगा कोई सपना,
उसे भूल जाना।
नहीं माँ,
कैसे भूल जाऊँ?
इतनी अनोखी-सी दुनिया,
हर तरफ़ थी खुशियाँ ही खुशियाँ।
लड़कियों के मन से डर का
मिट गया था नामोनिशान,
हर औरत के चेहरे पर
छाई थी मुस्कान।
पर मीनू!!!
वो तो था एक सपना,
हक़ीक़त में झाँक कर देख,
पाएगी सब कुछ पुराना।
निर्भया, प्रियंका नहीं तो
सौम्यश्री या प्रकृति,
किसी न किसी को तो भरना है
अख़बारों के पन्ना।
यहाँ लड़कियों का ख़ौफ़
कभी नहीं गया था,
लालचियों की लालच कभी
कमी नहीं थी।
गुंडों की गिनती हर दिन
बढ़ती ही जाती है,
पर संभलकर रहने से ही
हम सबका भला है।
पर माँ,
तुझे नहीं लगता कि
इन दरिंदों का बहुत हो गया गुणगान,
अब वक़्त आ गया है
इनके मिटाए नामोनिशान।
पर बेटी, तुम अकेली क्या करोगी?
वो तो अनगिनत हैं,
तुम्हें चैन की साँस लेने नहीं देंगे।
नहीं माँ,
मैं नहीं हूँ अकेली,
सब मेरे साथ हैं,
तेरी दुआ भी मैने पास रख ली।
वो डराते हैं
क्योंकि हम डरते हैं,
और डर का अंत होने का
वक़्त अब आ गया है।
खुले आम घूमने नहीं
देंगे उन दरिंदों को,
ज़रूरत है बस एक बार
सबके दिलों से डर को भगाने की।
माँ,
मैं नहीं चाहती कि
जिस डर से तू जीती है,
उसके साथ
मुझे जीना पड़े,
और मेरी बेटी भी मुझसे
यही सवाल पूछे—
डर-डर के वो भी जीए।
आवाज़ मैं उठाऊँगी,
तो वो सुकून की नींद सोएगी।
क्योंकि
जो पेड़ हम लगाएंगे,
शायद उसके फल अगली पीढ़ी खाएगी।
एक जागेगी तो सौ को जगाएगी,
ऐसे ही रस्सी खिंचती चली जाएगी।
तू फ़िक्र मत कर माँ,
तेरी बेटी नहीं हारेगी,
मर भी जाए तो
इतिहास के पन्नों पर
अपना नाम लिखेगी।
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18 घंटे पहले
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