जोश मलीहाबादी जवाहरलाल नेहरू के नज़दीकी थे और नेहरू जोश के मुरीद। कई बार दोनों की शामें एक-दूसरे की सोहबत में गुज़रती थीं। नेहरू ने उनके कई मुशायरे सुने थे। कहा जाता है कि तक़सीम-ए-हिंद के बाद नेहरू ही वह असल वजह थे जिसके कारण 'जोश' हिन्दुस्तान का दामन थामे बैठे हुए थे।
किसी कार्य बस जोश को 1955 में पाकिस्तान जाना पड़ा और वहां वे 2-3 महीने बिताये। उसी दौरान जोश के सामने पाकिस्तान ने ये प्रस्ताव रखा कि- 'यदि आप भारत को छोड़कर पाकिस्तान को अपना वतन मान लें तो 19000 रुया मासिक की आय का स्थायी प्रबंध किया जा सकता है, जो आपके बाद आपके संतान को भी मिलती रहेगी। पाकिस्तान सरकार उर्दू के व्यापक प्रचार-प्रसार के लिए एक समिति बनाना चाहती है जिसकी अध्यक्षता आप स्वीकृत कर लें।'
प्रस्ताव सुनकर जोश साहब ने फ़र्माया अपने भारतीय मित्रों से राय-मशवरे के बाद ही निश्चयात्मक उत्तर दिया जा सकता है। भारत आने पर जोश साहब ने पं. नेहरू, मौलाना आज़ाद आदि अपने हितैषियों से राय-मशवरा किया तो सभी ने पाकिस्तान जाकर बसने के लिए असहमति प्रकट की।
लेकिन विडंबना देखिए कि बुढ़ापे में जोश पाकिस्तान चले ही गए लेकिन उनका यह निर्णय उन पर बहुत भारी पड़ा और पाकिस्तान में उनकी हालत और भी ख़राब हो गयी। वहां जो उन पर गुज़री वह किसी सदमे से कम नहीं।
सरकार ने वहां बसने के एवज में उनके लिए काफ़ी इंतज़ाम और वादे किये थे इससे पाकिस्तानी नाख़ुश थे। फिर बीच-बीच में वे हिंदुस्तान भी आते थे और पाकिस्तानी उनके नेहरू प्रेम से नावाकिफ़ नहीं थे।
लिहाज़ा, पाकिस्तान में उनके ख़िलाफ़ हो एक वातावरण बन गया था। लोगों ने कहा कि सरकार ने आधा पाकिस्तान जोश को घूस में दे दिया है। उन्हें गद्दार और भारत का एजेंट तक बताया गया।
हालात इस कदर बिगड़ गए जोस साहब का मुशायरों में जाना बंद हो गया और वे वहां स्वयं को तन्हा महसूस करने लगे। 1967 में वे एक दफ़ा चंद महीनों के लिए हिन्दुस्तान आये और इस दौरान उन्होंने मुंबई में एक अखबार में इंटरव्यू दिया।
उसका नतीजा यह हुआ कि पाकिस्तान सरकार ने उनकी सरकारी नौकरी छीन ली। जोश मलीहाबादी के जीवन आख़िर के कुछ साल गुमनामी में गुज़रे और इसी अफ़सोस में 22 फरवरी 1982 को वे इस दुनिया से रुख़सत हो गए।
जोश का इंतकाल तो पाकिस्तान में हुआ लेकिन उनकी आत्मा आज भी लखनऊ के मलीहाबाद के आम के बाग़ों में ही फिरती होगी।
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2 वर्ष पहले
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