साहित्य समालोचक नामवर सिंह से मेरा पहला परिचय 1988 में उनके सहोदर भाई तथा सुप्रसिद्ध कथाशिल्पी काशीनाथ सिंह ने कराया था। अवसर था नामवर सिंह षष्टिपूर्ति अभिनंदन समारोह का। नामवर जी की षष्टिपूर्ति पर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के विधि संकाय सभागार में 28-29 मई 1988 को दो दिवसीय आलोचना सत्र का कार्यक्रम आयोजित हुआ था। उस कार्यक्रम के लिए नामवर जी ने अपनी स्वीकृति इस शर्त पर दी थी कि उसमें उनकी प्रशंसा के पुल न बांधे जाएं, बल्कि सम्यक् व तटस्थ आलोचना हो। मुझे याद है कि पूरे कार्यक्रम में उनकी इच्छा का सम्मान हुआ था।
तीन सत्रों में ‘रचना की चुनौतियां और आलोचना कर्म’, ‘आलोचना का सामाजिक दायित्व’ और ‘मार्क्सवादी आलोचना की समस्याएं’ विषयों पर विचारोत्तेजक बहसें हुई थीं। विद्यानिवास मिश्र, नागार्जुन, त्रिलोचन, मैनेजर पाण्डेय, मार्कण्डेय, दूधनाथ सिंह, ज्ञानरंजन, परमानन्द श्रीवास्तव, अरुण कमल समेत सत्तर लेखक उसमें शरीक हुए थे। कार्यक्रम के बाद बी.एच.यू. के अतिथि गृह में मैंने नामवर जी से इंटरव्यू किया।
उस मुलाकात के बाद नामवर जी से संवाद का सिलसिला दूर तक चल निकला। नामवर जी से कभी बनारस, कभी दिल्ली, कभी कोलकाता तो कभी वर्धा में मेरी कई मुलाकातें और लंबी-लंबी बैठकें हुईं। उनसे किसी मुलाकात में काशीनाथ सिंह पर चर्चा नहीं हुई हो, ऐसा मुझे याद नहीं है। दरअसल नामवरजी मुझे काशीनाथ के आत्मीय के रूप में देखते थे, इसलिए उनका प्रसंग आता ही था।
बलिया में नामवर आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की जयंती उनकी जन्मभूमि आरत दूबे का छपरा, ओझवलिया में मनाने का कार्यक्रम बना तो उसमें भाग लेने के लिए मैंने नामवर जी से आग्रह किया और नामवरजी सहर्ष तैयार हो गये। वे अपने खर्चे से वहां पहुंचे।
नामवर जी के साथ त्रिलोचन शास्त्री , विश्वनाथ त्रिपाठी और केदारनाथ सिंह भी 30 अगस्त, 1991 को द्विवेदी जी के गांव पहुंचे। रास्ते में बाढ़ का पानी देखकर वे सभी विशिष्ट साहित्यकार ठिठक गए थे। नामवर जी एक हाथ में चप्पल लेकर दूसरे हाथ से धोती घुटनों तक उठाए बाढ़ के पानी में उतर पड़े। त्रिलोचन शास्त्री , विश्वनाथ त्रिपाठी और केदारनाथ सिंह ने उनका अनुगमन किया तब जाकर वे लोग समारोह स्थल पर पहुंच सके।
उस समारोह में नामवर जी ने कहा था, “आज मेरा जन्म सार्थक हो गया। आचार्य द्विवेदी का शिष्य होने और उनके साथ रहने का सौभाग्य मिला था, लेकिन वह भूमि जहां उनका जन्म हुआ, उसके दर्शन का अवसर आज मिला। यह भी उन्हीं का प्रताप है। मैं तो निमित्त मात्र हूं। यदि मैं द्विवेदी जी का शिष्य न होता तो आपका यह स्नेह काहे को मिलता। उनका शिष्य होकर ही मैं आज इस रूप में आपके सामने खड़ा हूं।”
नामवर जी ने यह भी कहा था, “पंडित जी की जयंती आज ऐसे समय मनाई जा रही है, जब पूरा ओझवलिया गांव-चारों ओर से घिरा हुआ है पानी से, पर यहां की धरती में अद्भुत शक्ति है जो इसकी रक्षा करती है। जिन्होंंने भी पंडित जी का साहित्य पढ़ा है, वे जानते हैं कि इस साहित्य में ओझवलिया गांव, आरत दूबे का छपरा, यहां के रहने वाले लोग कितने रूपों में विद्यमान हैं। उनके बहाने द्विवेदी जी का साहित्य पूरे जीवन जगत को देखने का रास्ता बताता है। कार्यक्रम के बाद अंतरंग बातचीत में नामवर जी ने कहा कि जिस बी.एच.यू. में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी नहीं टिक सके, मुझे नहीं टिकने दिया गया, वहां काशीनाथ टिक गये, यह मेरे लिए बहुत बड़ी बात है।
दुर्गापुर में निराला की मूर्ति का अनावरण नामवर जी को करना था। 15 सितम्बर, 1996 की सुबह नामवर जी, मैं और कवि- पत्रकार अरविन्द चतुर्वेद दुर्गापुर पहुंचे। वहां निराला की मूर्ति के अनावरण के बाद समारोह को संबोधित करते हुए नामवर जी ने कहा, “निराला की कर्मभूमि रहा है बंगाल। इसलिए उनकी मूर्ति का स्थापित होना विशेष आशय रखता है।” दुर्गापुर के अतिथि गृह में हमारे ठहरने का प्रबंध किया गया था।
कार्यक्रम के बाद जब हम अतिथि गृह पहुंचे तो काशीनाथ जी का संदर्भ नामवर जी ने खुद उठाया। उन्होंने भावुक होते हुए कहा, “कृपा, काशी जैसा भाई न मिलता तो शायद इतने वर्ष मैं न जी पाता। यूनिवर्सिटी में दौ सौ पैंसठ रुपये मिलते थे। काशी ही घर चलाते। उसी में सारे खर्च अंटा लेते। मैंने कुछ नहीं जाना। नौकरी छूटी, तब भी नहीं। जब नौकरी नहीं थी, काशी को पढ़ाने के लिए बनारस लाया था।
काशी को तब भी कठिनाइयों से जूझना पड़ा। बी.एच.यू. में जब वे अध्यापक बन गये तो विश्वविद्यालय की राजनीति के कारण उन्हें क्या-क्या परेशानी नहीं झेलनी पड़ी। काशी जैसा भाई मिला, जन्म सार्थक हो गया। किसी को भी जीवन में काशी जैसा भाई मिले तो और कुछ मिलने की जरूरत नहीं होगी।” नामवर जी की बात सुनते हुए मुझे रामचरित मानस की पंक्ति याद आ गईः मिलइ न जगत सहोदर भ्राता।
नामवर जी राजा राममोहन राय पुस्तकालय प्रतिष्ठान के चेयरमैन बने तो अक्सर कोलकाता आते। उनकी हर कोलकाता यात्रा में लंबी लंबी बैठक होती। जब उषा गांगुली ने काशीनाथ सिंह की कहानी ‘पांड़े कौन कुमति तोहिं लागि’ पर आधारित ‘काशीनामा’ का पहला मंचन किया तो नामवर जी कोलकाता आए।
बंगाल का शायद ही कोई संस्कृतिकर्मी था, जो वह नाटक देखने न पहुंचा हो। बांग्लाभाषी बुद्धिजीवी नामवर जी से मिलने को व्याकुल थे। कहने का अभिप्राय यह है कि नामवर जी सिर्फ हिंदी साहित्य के ही केंद्रीय व्यक्ति नहीं थे, समस्त भारतीय भाषाओं में उनकी लोकप्रियता थी। नामवर जी सबसे हुलस कर मिले। काशीनाथ जी तो खैर मिले ही। दोनों भाई मंचन के बाद नाटक के एक- एक कलाकार से भी मिले। नामवर जी के 75वें वर्ष में प्रवेश करने पर देश भर में ‘नामवर के निमित्त’ शृंखला कार्यक्रम की रूपरेखा बनाने के लिए दिल्ली् में एक बैठक हुई थी।
उस बैठक में केदारनाथ सिंह, प्रभाष जोशी, मैनेजर पाण्डेय, सुधीश पचौरी, नित्यानंद तिवारी, मैं और सुरेश शर्मा उपस्थित थे। उसमें दिल्ली, मुम्बई, पटना, भोपाल, कोलकाता समेत अनेक स्थानों पर ‘नामवर के निमित्त’ आयोजन करने का निश्चय हुआ। निश्चय के तहत कोलकाता में आयोजित ‘नामवर के निमित्त’ कार्यक्रम में बांग्ला लेखिका महाश्वेता देवी ने गीत गाकर सुनाया था।
नामवरजी जब महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलाधिपति बने तो मैं वहां अध्यापक बन चुका था। वे जब भी वर्धा आते तो बैठक जमती। जब मैं विश्वविद्यालय के कोलकाता केंद्र का प्रभारी बनकर वर्धा से कोलकाता चला गया तो उन्होंने 18 मार्च 2012 को कुलाधिपति के रूप में विश्वविद्यालय के कोलकाता केंद्र का दौरा किया और वे केंद्र में ही ठहरे और गोष्ठी की अध्यक्षता की।
कोलकाता में उन्होंने मेरी दो किताबों का लोकार्पण किया। राजकमल प्रकाशन से छपी पुस्तक चलकर आए शब्द का लोकार्पण नामवर जी और अच्युतानंद मिश्र ने किया। हजारीप्रसाद द्विवेदी पर मेरी संपादित किताब के लोकार्पण के बाद पुस्तक के आवरण पृष्ठ के ठीक बाद रहने वाले सादे पृष्ठ पर नामवरजी ने लिखा, “इस पुस्तक का संपादन करके तुम तो एक साथ ही ऋषि ऋण, पितृ ऋण और गुरु ऋण सबसे उऋण हो गए इसलिए ऐसे भाग्यशाली युवक को मेरे पास ईर्ष्याभरी बधाई ही देने को रह गई है।”
इससे बड़ा प्रमाणपत्र शायद ही अब मुझे इस जीवन में मिले। खास तौर पर उस व्यक्ति से जिसने लिखते और बोलते हुए निरंतर इतिहास बनाया। नामवर जी ने ‘इतिहास और आलोचना’ में लिखा है, ‘इतिहास वही लिखता है जो इतिहास में योग दे।’ नामवर जी ने जो इतिहास लिखा है, वह इतिहास स्वीकृत तथ्य है।
(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के जनसंचार विभाग में प्रोफेसर हैं)
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एक महीने पहले
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