यह किस्सा राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित किताब 'कैफ़ियात' में लिखा है जो कैफ़ी आज़मी की कुल्लियात है। जानें यह वाक़या जिसे शबाना आज़मी ने इस किताब में बताया है।
मेरी माँ अब्बा की ज़िन्दगी में पूरी तरह हिस्सा लेती रही हैं। शादी से पहले उन्हें अब्बा पसन्द तो इसलिए आए थे कि वो एक शायर थे मगर शादी के बाद उन्होंने बहुत जल्दी ये जान लिया कि कैफ़ी साहब जैसे शायरों को बीवी के अलावा भी अनगिनत लोग चाहते थे। ऐसे शायर पर उसके घरवालों के अलावा दूसरों का भी हक होता है (और हक जतानेवालों में अच्छी-ख़ासी तादाद ख़वातीन की होती है)। याद आता है, मैं शायद दस या ग्यारह बरस की हूँगी जब हमें एक बड़े इंडस्ट्रियलिस्ट के घर में एक शाम दावत दी गई थी। उन साहब की खूबसूरत बीवी, जिनका उस ज़माने की सोसायटी में बड़ा नाम था, इतरा के कहने लगीं- कैफ़ी साहब, मेरी फरमाइश है वही नज़्म ‘दो निगाहों का.. समथिंग समथिंग। फिर दूसरों की तरफ देखकर फ़रमाने लगीं-'पता है दोस्तो, ये नज़्म
कैफ़ी साहब ने मेरी तारीफ़ में लिखी है'-और अब्बा बग़ैर पलक झपकाए बड़े आराम से वो नज़्म सुनाने लगे, जो मुझे अच्छी तरह पता था कि उन्होंने मम्मी के लिए लिखी थी और मैं अपनी माँ की तरफ़दारी में आग बबूला होकर चिल्लाने लगी'- ये झूठ है। ये नज़्म तो अब्बा ने मम्मी के लिए लिखी है, उस औरत के लिए थोड़ी।'
महफिल में एक पल तो सन्नाटा-सा छा गया। लोग जैसे बगलें झाँकने लगे। फिर मम्मी ने मुझे डाट के चुप कराया। सोचती हूँ, ये डांट दिखावे की ही रही होगी, दिल में तो उनके लड्डू फूट रहे होंगे। बाद में मम्मी ने मुझे समझाया भी कि शायरों का अपने चाहने वालों से एक रिश्ता होता है। अगर वो बेचारी समझ रही थी कि वो नज़्म उसके लिए लिखी गई है तो समझने दो, कोई आसमान थोड़े टूट पड़ेगा।
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