यह आलेख डॉ.हरेराम पाठक ने लिखा है-
गए कुछ दशकों में डॉ.ओम निश्चल ने हिंदी साहित्य में अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है। महत्वपूर्ण आलोचक होने के साथ साथ एक कवि-गीतकार के रूप में उनका अवदान साहित्य में उल्लेखनीय है। उनके जन्मदिन पर उन्हें याद कर रहे हैं डॉ.हरेराम पाठक
ओम निश्चल नई एवं समकालीन कविता के एक सहृदय आलोचक हैं। उनका कविताध्ययन व्यापक है। उनकी आलोचनात्मक कृतियों में ' कविता के वरिष्ठ नागरिक ', 'चर्चा की गोलमेज पर अरुण कमल ', 'समकालीन हिंदी कविता : ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य ' , 'खुली हथेली तुलसी गंध ' , ' शब्दों से गपशप ', ' कविता की सगुण इकाई : कुंवर नारायण ', ' कैलाश वाजपेयी'(विनिबंध,साहित्य अकादमी)आदि प्रमुख हैं। ओम निश्चल ने साठोत्तर काव्यालोचन को एक नई दिशा दी है। यह वह जमाना था जब कि आलोचना में बोझिल और अबूझ शब्दों के प्रयोग को पांडित्य का पर्याय समझा जाने लगा था। ऐसी स्थिति में ओम निश्चल ने आलोचना को ' गपशप ' के स्तर पर उतार कर उसे जनोन्मुखता का स्वरूप प्रदान किया । लेकिन भाषा के सतही स्तर से सर्वथा दूर रहते हुए कविता की संवेदना के धरातल पर उतर कर उन्होंने आलोचना के 'लोचन ' को सामान्य जन से जोड़ते हुए ' गोलमेज ' की-सी वार्ता प्रारंभ की। साहित्य के छात्र से लेकर विद्वत पीढ़ी तक के सोचने - समझने के भाषाई संस्कार एवं व्यवहार को उन्होंने आलोचना का 'गंतव्य और मंतव्य ' माना। आलोचना के क्षेत्र में इतना करते हुए भी गीत और ग़ज़ल के क्षेत्र में उनका पदार्पण करना कोई आश्चर्य नहीं, तो चिंतन का विषय अवश्य है। आश्चर्य इसलिए नहीं कि अभिव्यक्ति की व्यग्रता लेखक को किसी भी विधा में ले जा सकती है। वे सन् 1976 से ही गीत लिख रहे हैं, फिर वे नवगीत में आए और इन दिनों ग़ज़लों में उनका अवदान सराहा जा रहा है।
ओम निश्चल गीत और ग़ज़ल में जदीदियत अथवा आधुनिकता के मुहावरे में जो कुछ कह सकते थे, वह आलोचना में कहना संभव नहीं था। समसामयिक, सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक या आर्थिक परिघटनाएं हमारे अंदर क्षोभ, घृणा, विवशता, दीनता आदि के भाव जिस तीव्रता से प्रकट करती हैं उससे एक सहृदय कवि इतना आहत होता है कि उसकी पीड़ा घनीभूत होकर हृदय - निर्झर से गीत बन झरने लगती है। कवि - हृदय ओम निश्चल के साथ साथ भी कुछ ऐसा ही होता है ; फलत: वे गीत एवं ग़ज़ल-सृजन की ओर अग्रसर होते हैं। उनका हृदय विश्व वसुधा के दुःख - निस्तारण हेतु व्याकुल हो उठता है और अनायास ही उनकी लेखनी समसामयिक विद्रूपताओं के चित्र उकेरने लगती है। जिस प्रकार उनकी आलोचना ने ' लालित्यालोचन ' की गरिमा विकसित की, उसी प्रकार उनके गीत - ग़ज़ल भावों के आस्फालन से दूर रहकर परदुखकातरता और भावप्रवणता से संपृक्त रहे। उनमें संश्लिष्टता, संघनता और सांद्रता का सुघर विनियोग देखने को मिलता है। अब तक ओम निश्चल के चार ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं - ' मेरा दुख सिरहाने रख दो' ; ' ये जीवन खिलखिलाएगा एक दिन' ; ' कोई मेरे भीतर जैसे धुन में गाए' और ' ये मन आषाढ़ का बादल हुआ है ' । उनकी ग़ज़लों का चयन ग़ज़ल के जाने माने आलोचक, विवेचक एवं अध्येता ज्ञानप्रकाश विवेक ने भी संपादित किया है जिसका शीर्षक है:'सो भी जाओ की रात का पल है ।' इसकी लंबी भूमिका में विवेक ने ओम निश्चल की भाषाई प्रयोगधर्मिता को ग़ज़ल के लिए एक उपलब्धि माना है।
यों तो ओम निश्चल अपने शुरुआती दौर से ही ग़ज़लें कह रहे थे। उनके पहले संग्रह 'शब्द सक्रिय हैं' में भी कुछ ग़ज़लें संग्रहीत हैं जो इस बात का प्रमाण हैं कि वे ग़ज़ल के छंद, मीटर व शेरियत से वाबस्ता रहे हैं। लेकिन हाल के एक दशक में उनकी ग़जल रचना में जैसे एक उबाल आया है। समाज, सियासत, संस्कृति और बदलती मनुष्यता की शिनाख्त़ उन्होंने अपनी ग़ज़लों में की है। उनका संग्रह ' मेरा दुख सिरहाने रख दो ' उनकी सुख़नवरी का परिचायक है। एक गीतकार जब ग़ज़ल जैसी काव्य शैली में उतरता है तो उनके कवि का बुनियादी रंग-रोगन और अंदाज़ ए बयॉं एकदम खत्म नहीं होता। एक तरह से यह सीमा भी है और यही विशिष्टता भी कि ओम जी की ग़ज़लें पहली बार उनके भीतर ग़ज़ल की बेहतरीन समझ की ओर इशारा करती हैं।
'मेरा दुख सिरहाने रख दो' की ग़ज़लों को यों तो संकोचवश ओम निश्चल ने गीतिका कहा है किन्तु ये ग़ज़लें ही हैं। इस बार में उन्होंने अपनी भूमिका में यह बात स्पष्ट भी की है। शायद वे नीरज से प्रभावित रहे हों जिन्होंने अपनी ग़ज़लों को गीतिका का नाम दिया था। वे लिखते हैं कि '' गुलाब खंडेलवाल,रामावतार त्यागी, ज्ञानप्रकाश विवेक, सुरेंद्र चतुर्वेदी व शिव ओम अंबर आदि की ग़ज़लों को पढ़ता हूँ तो मुझे उसमें हिंदी रचनाशीलता की बुनियादी तासीर नज़र आती है।'' ओम निश्चल की शायरी में उनका निज और सामाजिक दोनों मुखर है। जहां 'वे मेरा दुख सिरहाने रख दो' जैसी निज की पीड़ा का इज़हार करते हैं, उसी तरह वे समाज देश और दुनिया के मुद्दों पर हमलावर नज़र आते हैं । अफगानिस्तान में जब तालिबान का कहर जारी था तब इस कवि ने लिखा था --
गश्त दहशत लगा रही है फिर
खौफ़ राइफल जगा रही है फिर
तालिबानों ने सिर उठाया है
सिर तबाही उठा रही है फिर
** ** **
फिर धधकता है कोई काबुल
फिर सुबकती यहां पे औरत है
तालिबानों के प्रेत नाच रहे
कौन रोके कि किसकी कूवत है (मेरा दुख सिरहाने रख दो; पृष्ठ112)
काबुल की तत्कालीन तालिबानी गतिविधियों को जिस शिद्दत से ओम निश्चल ने दर्ज किया है मैं नहीं समझता, अपनी ग़ज़लों में किसी और समकालीन शायर ने किया है । उनकी एक और ग़ज़ल के चंद अशआर देखें --
जर्रा जर्रा काबुल काबुल
उजड़ा बिखरा काबुल काबुल
दूर जा गिरी बिटिया बोली
मुझे बचा लो बाबुल बाबुल (वही, पृष्ठ 116)
जहां इस संग्रह में ओम जी की कुछ साफ्ट ग़ज़लें हैं -- मन है अगर विह्वल लिखो/ तुम हृदय की हलचल लिखो। वहीं ऐसे ललित मनुहार भी कि -- आ भी जा आवारा बादल देर न कर/ खेतों में बरसा जा दृगजल देर न कर। एक गज़ल में वे तालीम ले रहे गरीब बच्चों पर दृष्टि डालतेहुए कहते हैं --
चाहता हूँ कि तितलियॉं बॉंटूँ
साथ मिल कर उदासियॉं बॉंटूँ
उसकी खुशियों में झूम कर नाचूँ
और बच्चों को कापियॉं बाँटूँ (वही, पृष्ठ 25)
यही वे सरोकार हैं जो शायर से यह कहलवाती है :
ऐ दरख़्तों सुनो न सोना अभी
कहते हैं, आरियॉं बची हैं अभी ।
राख जनता को मत समझ लेना
उसमें चिन्गारियां बची हैं अभी । (वही, पृष्ठ 91 )
'मेरा दुख सिरहाने रख दो' की अनेक ग़ज़लों यथा -- नीम सन्नाटे में इन आंखों में ऑंसू आए, कितनों के मुँह से निवाले और दौलत छीन कर, बहुत आसॉं नहीं मजदूर होना, फ़कत रस्ता है ये मंजिल नहीं है, रात विह्वल है नींद गायब है, समय की मार न खाते तो और क्या करते, जितनी दहशत में रहेगी दुनिया, दुख का दरिया देख रहा हूँ, आदि में हमारा समय बोलता है। एक कवि की चिंता बोलती है। उसके अहसासात बोलते हैं। तभी शायद वह कह पाता है कि लोगों का दुख इतना है कि अपने दुखों को वह खुद ही समेटकर रहना चाहता है --मेरा दुख सिरहाने रख दो।
दुख तो कविता के मूल में ही होता है। वह आज की शायरी या ग़ज़लों के मूल में भी है। लेकिन उजाले की खोज करते रहना भी एक शायर का काम है। बकौल शिव ओम अंबर: रोशनी के नाम ख़त लिखना नहीं छोड़ा / गो अंधेरों की सुरंगों में पड़े हैं हम । ओम निश्चल अपने अगले संग्रह में इस उम्मीद को एक आश्वस्ति देते हुए कहते हैं -- ये जीवन खिलखिलाएगा किसी दिन। ग़ज़ल कोई काफिए रदीफ़ या तुकों का खेल नहीं है , यह एक पूरा छंद व्यवस्था है, एक संतुलन है जिसे साध कर ही अरूज़, शेरियत और मीटर की कसौटी में एक मुकम्मल ग़ज़ल कही जा सकती है। ये जीवन खिलखिलाएगा किसी दिन --- में ओम जी कुछ और बारीक बीनाई और अभिव्यक्ति में ताज़गी और तेवर के साथ सामने आए हैं। इसकी लगभग सभी ग़ज़लें उनके कवि-सामर्थ्य का प्रमाण हैं जहां हर वह विषय है जिसका जीवन, समय व समाज से ताल्लुक़ है। मनुष्य माना कि बहुत ताक़तवर है लेकिन एक ग़ज़ल में उनका यह कहना कि-- कौन किसकों यहां नचाता है/ आज कठपुतलियों ने देख लिया-- आदमी की सीमा को रेखांकित करता है। आज स्त्री के जो हालात हैं,ओम जी ने इस मुद्दे पर अनेक ग़ज़लें कही हैं। आज तलाक़ आम हो चुका है। रिश्ते बेमानी हो चुके हैं। पूंजी और अर्थतंत्र ने रिश्तों की बुनियाद हिला दी है। परिवार टूट रहे हैं। सेल्फ सेटिस्फैक्शन के आगे किसी और की इज्ज़त नही है। ऐसा होता है तभी ऐसी ग़ज़ल लेखनी से पैदा होती है :
जैसे वह सिर्फ इक कहानी थी
जो मुझे इस जनम सुनानी थी
लिख के पीड़ा से ज्यों गुज़रना था
फिर वो पीड़ा भी भूल जानी थी (ये जीवन खिलखिलाएगा, पृष्ठ 137)
या यह ग़ज़ल --
दिल को पत्थर बना के छोड़ दिया
उसने कुछ दूर जा के छोड़े दिया
एक दूजे से आ गए आजिज़
एक दूजे को पा के छोड़ दिया
घर बसाने की बड़ी चाहत थी
उसने घर भी बसा के छोड़ दिया (ये जीवन खिलखिलाएगा किसी दिन, पृष्ठ 138)
उनके यहां बहुत अच्छी ग़ज़लें हैं। उनका अध्ययन बहुत विपुल है। गांव के रहने वाले हैं सो शहर आकर भी गांव की पीड़ा नहीं भूले, वे असुविधाएं नहीं भूले जो आज भी गांव को आधुनिकता की राह में पीछे ढकेल रही हैं। चांद को बदलियों ने देख लिया, कभी संबंध भी नज़दीकियों से टूट जाता है, यह दुनिया खुरदुरी नहीं थी, उसके जीवन की डायरी बन कर, दर्द बहता रहा नदी जैसे, एक हँसता हुआ शजर था वो, सुबह ताज़ा गुलाब देखूँ मैं, रिश्ते जीवन के तार तार हुए -ऐसी बहुत सी ग़ज़लें हैं जिनसे गुज़रते हुए एक कसैला सा अहसास होता है। क्या हो गया है इस दुनिया को। जैसेअरसेसे बीमार हो यह1 समाज की इस बीमारी के सारे लक्षण ओम जी की ग़ज़लों में दिखाई देते हैं। कई ग़ज़लों मे स्त्री केंद्र में है, स्त्री विमर्श केंद्र में है। उसके जीवन की डायरी बन कर -- ऐसी ही मार्मिक ग़ज़ल है। रिश्ते जीवन के तार तार हुए जिस मोड़ पर खत्म होती है वह बहुत ही हिला देनेवाला है । रिश्तो के दुखद अंत का ऐलान करता हुआ यह शेर देखें --
हाथ में हैं तलाक़ के काग़ज़
कितने जन्मों के थे क़रार हुए।
** **
रिश्तों की खटास पर यह ग़ज़ल मन्नू भंडारी के उपन्यास 'आपका बंटी' की याद दिलाती हे --
दूर से बंटी घृणा की आग में जलता रहा
और फिर शर्म-ओ- हया भी पानी पानी हो गई
हम किसी मंजिल पे पहुंचे नहीं थे आज तक
ट्रेन-सी पटरी से उतरी ज़िन्दगानी हो गई (वही, पृष्ठ 120 )
स्त्री के हालात पर तीखी रोश नी डालती ग़ज़ल 'जो मेरी ज़िन्दगी में शामिल था' -- भी मार्मिकता की हदें छूने वाली है --
जो मेरी जिन्दगी में शामिल था
मेरे दुख से बहुत ही गाफिल था
साथ साये की तरह रहता था
मेरे सपनों का वही क़ातिल था
मेरे आंसू नहीं छलक पाए
मेरा रोना भा बहुत मुश्किल था (वही, पृष्ठ 116)
ओम निश्चल की गजलें व्यवस्था की खामियां उजागर करने में कोई संकोच नहीं करतीं । यह मुनष्यता के खिलाफ उठते हुई आवाजों की भी खबर रखती है तभी कवि करुणा और विक्षोभ से भर कर यह कहने पर विवश होता है कि-
एक मलबे में बदलती हुई जैसे दुनिया
इन दिनों एक भी लम्हा ये नहीं सोती है
है अभी वक्त ऐ दुनिया तू सँभल जा अब भी
करके ये इल्तिज़ा धरती सुबक के रोती है (कोई मेरे भीतर जैसे धुन में गाए, पृष्ठ 29)
सियासत बदजुबानी कर रही है--ग़ज़ल भी व्यवस्था और सियासत के पेंचोख़म को उद्घाटित करती है। वे नरम अहसासात की गजलें कहते हैं तो जीवन को प्रभावित करने वाली संजीदा तेवर की ग़ज़लें भी। जीवन और समाज के हर पहलू को उनकी ग़ज़लों को नुमायां देखा जा सकता है। दुनिया जहान की बातें उनकी ग़जलों का उन्वान बनती हैं। किस नज़रिए से वे पूरी दुनियाको देखते हैं यह जानना हो तो ये तेरे देखने कहने का है नज़रिया बस-- ग़ज़ल देखी जानी चाहिए --
ये तेरे कहने देखने का है नज़रिया बस
मेरी ग़ज़ल को इबादत का है तरीक़ा बस
कभी निहारो ज़रा बैठ कर समंदर को
ये नर्म रेत है अहसास का गलीचा बस
यहां दरख्तों पे कुदरत ने लुटाई है मेहर
करोगे ग़ौर तो दुनिया है इक बगीचा बस (ये जीवन खिलखिलाएगा, पृष्ठ 45 )
इन ग़ज़लों में उनका स्वत्व गांव देस नदी और समय भी बोलता नजर आता है। जब वे कहते हैं -- ''मेरे भीतर सई का पानी है/ चाह कर के भी बेतवा न हुई / यूँ तो चलती है रोज़ ही पुरवा / पर कभी मेरा हमनवा न हुई। '' भाषा और अंदाज़ ए बयां में यही ताजगी हर जगह दिखाई देती है। जो बात एक कविता में उस सलीके से नहीं कही जा सकती, उसे ओम जी बोलचाल के लहजे में कह देते हैं।
उनका नवीनतम ग़ज़ल संगह 'ये मन आषाढ़ का बादल हुआ है ' आषाढ़ के बादल के समान मन की जीवंत रवानगी को रेखांकित करता है लेकिन इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि आषाढ़ के महीने में छाई घटाओं एवं रिमझिम फुहारों के बीच जन- सामान्य के मन में तरंगित रोमानी भावों की व्यापकता के साथ यहां चित्रित हुई है -
किसी के प्यार में पागल हुआ है ,
यह मन आषाढ़ का बादल हुआ है ।
तुम्हारी सोहबतें याद आ रही हैं,
हृदय यह आज फिर विह्वल हुआ है।
( ये मन आषाढ़ का बादल हुआ है, पृष्ठ - 20 )
श्रृंगार में भी सांस्कृतिक प्रतीकों / मिथकों के माध्यम से अपनी बात रखना ओम निश्चल की विशेषता है। उनके अधिकांश ग़ज़ल सांस्कृतिक भाव - भंगिमा से लबरेज़ हो हमें बार - बार अपनी संस्कृति की पहचान से अवगत होने का संकेत भी करते हैं -
भगीरथ श्रम लगा है तब कहीं पर,
बरस कर मेघ गंगाजल हुआ है।
( वही, पृष्ठ - 20 )
ओम निश्चल जिस संस्कृति की बात करते हैं वह महज़ पौराणिक कथाओं तक ही सीमित नहीं है। संस्कृति का आयाम उनके यहां बहुत व्यापक है। वे श्रम - संस्कृति के प्रबल पक्षधर हैं। यही उनके जीवन का उद्देश्य भी रहा है ; इसीलिए वे कहते हैं -
मेहनत से तू मत शरम कर,
कुछ धरम कर कुछ करम कर ।
भगवान इक दिन आयेंगे ,
इसमें न किंचित भरम कर ।
( वही, पृष्ठ - 15 )
श्रम के बल पर भगवान को भी धरती पर बुला लेने का सामर्थ्य होता है । श्रम - संस्कृति के अनेक रूपक ओम निश्चल के ग़ज़लों में रचे गए हैं ।' सर्वे भवन्तु सुखिन: ' सनातन की शाश्वत अवधारणा रही है। यही भाव हमारी संस्कृति को संबल देता रहा है। ओम निश्चल लिखते हैं -
कि डूब जाओगे आंखों की एक डिबिया में,
कि बारिशों में वफ़ा की नहा के देखो तो।
निगाह डालो तो अपने पड़ोस में भी कभी,
कभी तो उनको भी अपना बना के देखो तो।
( वही, पृष्ठ - 18 )
ओम निश्चल की ग़ज़लों में मौसम के बहाने देश की युवतियों पर हो रहे दैनंदिन अत्याचार, क्रूर बलात्कार और बेरहम व्यवहार का मार्मिक चित्रण हुआ है -
अभी तो यहां पर बड़ी सर्दियां हैं,
हवाएं हैं ऐसी कि ज्यों बर्छियां हैं।
न निकलो सनम सरबरहना सड़क पर,
के नभ में कड़कती हुई बिजलियां हैं।
( ये मन आषाढ़ का बादल हुआ है, पृष्ठ - 14 )
ग़ज़ल के शेरों में ख़याल का बहुत महत्व होता है। ख़याल अथवा भाव ही शब्दों में शक्ति लाते हैं । उपर्युक्त शेरों में
'बर्छियां ' एवं ' बिजलियां ' शब्दों में समाई व्यंजना शब्द शक्ति के सोद्देश्य प्रयोग के मार्मिक भावार्थ को समझा जा सकता है। ये दोनों शब्द आए दिन युवतियों पर कहर ढाने वाले ज़ालिम एवं निरंकुश हत्यारों और यौन - उत्पीड़कों के लिए प्रयुक्त किए गए हैं। बाद के शेरों में इस अर्थ का बाकायदा खुलासा हो जाता है -
अभी तुम तो कमनीय टहनी हो कोई,
नरम - सी तुम्हारी अभी डालियां हैं ।
( वही, पृष्ठ - 14 )
एक संपूर्ण ग़ज़ल की सफलता ऐसे ही शेरों की लड़ियों में अनुस्यूत होती है। शब्दों का सार्थक चुनाव, तासीर की तुहीन - कणों- सी ताज़गी, अभिव्यंजना का अचूक प्रयोग, ध्वनि की मर्मभेदी अनुगूंज, भाषा का संश्लिष्ट संयोग, संप्रेषण की सहज पकड़, कहावतों का नवीन एवं युक्तिसंगत प्रयोग आदि से सुसज्जित ग़ज़ल लोगों की ज़ुबान ऐसे चढ़ जाते हैं कि ग़ज़ल के साथ - साथ ग़ज़लकार भी ' कहियत भिन्न न भिन्न ' हो जाता है। सफी साहब ठीक ही फरमाते हैं --- ''शाइरी क्या है, दिली जज़्बात का इज़हार है/ दिल अगर बेकार है तो शाइरी बेकार है।''
प्यार के नाम पर जितना उत्पीड़न होता है, उतनी ही धोखेबाजी और धंधेबाजी। कमसिन ललनाओं का छला जाना जैसे आज खेल - सा हो गया है। समकालीन संदर्भ में लिखी गई ओम निश्चल की ये ग़ज़लें हमें बार - बार चिंतन करने के लिए आमंत्रित करती हैं। ये ग़ज़लें समकालीन होते हुए भी समकालीनता के पार जाकर युग - युग की दास्तान कहती प्रतीत होती हैं -
मुहब्बत की गलियों से चलकर गए हैं,
मगर दिल को मेरे वे छल कर गए हैं। ( वही, पृष्ठ - 16 )
फिर भी इस छल के बदले प्रेयसी एक अंतहीन टीस के साथ उस छलिया का नाम अपने अधरों से लेती ही रहती है। मुहब्बत की इस विडंबना को कलमबद्ध करते हुए शाइर लिखता है -
वो मासूमियत याद आती है उनकी,
जो हिरदय को सूखा कंवल कर गए हैं । ( वही, पृष्ठ - 16)
शाइरी जीवन को नजदीक से देखने की कला है। जीवन की हरेक गतिविधियों का सूक्ष्म अवलोकन ही शाइरी की जान है। जीवन का भोगा हुआ यथार्थ यदि शाइर के अनुभव में पगा हो तब तो सोने पे सुहागा है। यही अनुभव ओम निश्चल की ग़ज़लों में वज़न भरता है -
रेजा - रेजा बिखर के उसने देखा था,
बर्बरता से गुजर के उसने देखा था ।
यह जीवन अब जीने लायक नहीं रहा,
कतरा - कतरा उधड़ के उसने देखा था।
( ये मन आषाढ़ का बादल हुआ है, पृष्ठ - 95 )
जिंदगी से तंग आती जिंदगी, लोगों की संवेदनहीनता और वफादारी के नाम पर प्रदर्शन ने बड़े - बड़े कवियों को जिंदगी से विरक्त बनाया है। पर यह विरक्ति जिंदगी से ' पलायन ' नहीं है ; जैसा कि जयशंकर प्रसाद पर आरोप लगाया जाता रहा है। जब जयशंकर प्रसाद कहते हैं कि ' ले चल मुझे भुलावा देकर, मेरे नाविक धीरे - धीरे ' , दुष्यंत कुमार कहते हैं कि ' यहां दरख़्तों के साए मे धूप लगती है, चलो यहां से चलें उम्र भर के लिए ' तो इसका मतलब यह है कि वे जिंदगी की विद्रूपताओं के प्रति क्षोभ व्यक्त करते हुए उसे समरसता और सामंजस्य की उदात्त भूमि पर प्रतिष्ठित देखना चाहते हैं। जब ओम निश्चल यह कहते हैं कि ' यह जीवन अब जीने लायक नहीं रहा ' तो इसका अर्थ यह है कि उनके अंदर जीवन को जीने लायक देखने की उदात्त व्यग्रता है। बुराइयों के प्रति क्षोभ व्यक्त करने और समाज की विद्रूपताओं के प्रति लोगों में विकर्षण पैदा करने का यह सर्वोत्कृष्ट साहित्यिक अभिव्यक्ति है। ओम निश्चल भावों के अद्भुत चितेरे हैं। समाज में घटित होती स्थूल परिघटनाओं पर तो उनकी पैनी नज़र पड़ती ही है, उन घटनाओं के पीछे छुपे भावों की सूक्ष्म उपादानों को भी वे बड़ी बारीकी से पकड़ते हैं। जो आँखें पहले किसी का दुख देखकर व्यग्र हो जाती थीं, उनमें अश्रु प्रवाहित हो जाते थे, आज उन्हीं आँखों अश्रु का एक कतरा भी नहीं झिलमिलाता है। संवेदन-शून्यता की इस पराकाष्ठा का अनुभव करते ओम निश्चल आज जो शब्द चित्र अंकित करते हैं वह मर्म को गहरे स्पर्श करता है --
आँखों में पहले जैसी नमी न थी,
गहराई में उतर के उसने देखा था।
( ये मन आषाढ़ का बादल हुआ है, पृष्ठ - 95 )
जीवन से संवेदनशीलता, सरसता आदि का गायब होता जाना विश्व के लिए घातक तो अवश्य है, पर निराशा के गर्त में पड़े रहना भी कम घातक नहीं है । गुलाब कांटों में खिलता है तो कमल कीचड़ में। कवि ओम निश्चल भी इसीलिए दर्द के प्रांगण में रहते हुए भी चमन - सा खिले रहने का संदेश देते हैं -
दर्द के प्रांगण में रहता हूँ ,
फिर भी जैसे चमन में रहता हूँ।
ऐसे हालात हैं जमाने के ,
कल्पना के भुवन में रहता हूँ ( वही, पृष्ठ - 97 )
बार - बार धोखे खाकर भी जिंदगी पर एतबार करना और यहां तक विश्वास करना कि जिंदगी ने मुझे तोड़ा है तो संवारेगी भी वही ; यह है ओम निश्चल का जीवन - दर्शन । यह महज कोई जज्बाती जीवन - दर्शन नहीं है; ओम निश्चल के हृदय - सरोवर से होकर गुज़रने वाला हरेक शख्स उनकी इस खासियत से परिचित होगा कि उन्होंने अपनी जिंदगी में एक - एक कर अपनों को खोया है, बहुत धोखे मिले हैं उन्हें अपनों से ही , लगभग एकांतवास की जिंदगी जीते हुए भी ओम जी पुस्तकों से भरे पूरे मकान में जिंदगी के अर्थ की निरंतर तलाश करते हुए हमेशा आश्वस्त दिखाई देते हैं कि जिस जिंदगी ने उन्हें बिखराया वही जिंदगी उन्हें संवारेगी भी। ओम निश्चल का यह निजी आख्यान निजी नहीं है , यह सार्वकालिक और सार्वजनीन आख्यान है -
जिंदगी कितने ही धोखे से होकर गुजरी है,
जाने क्यों उस पे ही फिर भी एतबार है मुझे ।
अब जो टूटा तो मैं सच में बिखर जाऊंगा,
जिंदगी आ के तू एकबार फिर संवार मुझे। (वही, पृष्ठ - 112 )
दुष्यन्त कुमार के ग़ज़ल का एक शेर बहुत प्रसिद्ध एवं लोकप्रिय है -
कौन कहता आकाश में सुराख हो नहीं सकता,
एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो।
इसी भाव से जुड़ा हुआ ओम निश्चल का एक शेर है -
मैं आसमां अभी सर पे उठा सकता हूं,
कोई तूफ़ान - सा अंदर से उठा दे मुझमें।
कहां जाऊं कि कोई आग लगादे मुझमें,
भीतर सोए हुए जज़्बात जगा दे मुझमें। ( वही,पृष्ठ - 103 )
दुष्यंत कुमार हों या उनके बाद की पीढ़ी के ओम निश्चल दोनों जीवन में कर्म की अहमियत को गहरे अनुभव करते हैं और जीवन भर सतत् उस रास्ते पर चलने की प्रेरणा देते हैं। ' सोए हुए जज़्बात ' को जगा देना और ' कोई तूफ़ान - सा अंदर उठा ' देना आज ऐसी सोच एवं ऐसे भावों की हमारे देश में नितांत आवश्यकता है। कहीं न कहीं ओम निश्चल यह महसूस करते हैं कि हमारे अंदर शक्ति का अपार स्रोत है, पर हम उसे परख नहीं पा रहे हैं। हमें अपनी शक्ति से भलीभांति परिचित होना होगा। अब हमें खुद परिचित होना होगा या हमें कोई परिचित कराए ; जैसे जाम्बवंत ने वीर हनुमान को उनकी शक्ति का एहसास कराया था। महादेवी जी ने इसी भाव से प्रेरित होकर ' जाग तुझको दूर जाना ' और निराला जी ने ' जागो फिर एक बार ' जैसे उद्बोधन गीत लिखे हैं।
ग़ज़ल का ब्रह्मांड बहुत ही व्यापक है। वेदमंत्र जैसे सूत्रात्मक हैं , वैसे ही सूत्र रूप में कही गई ग़ज़लें अपने गर्भ में अनेक प्रतीकात्मक अर्थ छिपाए रखती हैं। देशकाल के अनुसार उनका भाष्य किया जा सकता है , पर वह भाष्य देशकाल की सीमा का अतिक्रमण कर सार्वकालिक अर्थ का द्योतन भी कर सकता है। विशेषकर प्रेम और श्रृंगार की ग़ज़लें अपने क्रोड़ में दोहरे - तिहरे अर्थ छिपाए रखती हैं। बिहारी कवि ने अपने दोहों में यह प्रयोग बहुत पहले ही कर दिखाया है, ' मेरी भव - बाधा हरौ राधा नागरि सोइ । जा तन की झाईं परै श्याम हरित - दुति होइ।।' ओम निश्चल ने इसी दुसरे - तिहरे अर्थ के शाब्दिक कौशल से परिव्याप्त पर्याप्त ग़ज़लें लिखी हैं -
कहां पे जाके नहाऊँ मैं भला संगम में,
नेह औ छोह की कोई यहाँ धारा भी नहीं।
बहुत ही दूर चला आया हूं उस दुनिया से,
अब मोहब्बत का जहॉ कोई इदारा भी नहीं। ( वही, पृष्ठ - 111 )
' संगम ' में भी नेह और छोह कि धारा का न होना ' संगम ' नाम पर ही प्रश्न चिह्न लगा देता है। यहां व्यंजना में व्याप्त अर्थ - व्याप्ति , सार्थक शब्द - संयोजन और उसके कलात्मक प्रयोग की दक्षता को देखकर ओम निश्चल की काव्य प्रतिभा का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। दूसरे शेर की पहली पंक्ति में व्यंजना का यही कलात्मक प्रयोग भाव को अर्थ - गौरव प्रदान करता है।
कभी सियासत पर लिखना साहित्य की श्रेणी में नहीं गिना जाता था। ग़ज़ल में तो सियासत पर कुछ बोलना ही मुमकिन नहीं था। पर समय ने करवट ली। ग़ज़ल में सब कुछ अभिव्यक्त होने लगा। आजकल ग़ज़ल की कलात्मक तीरंदाजी बहुत ही तीक्ष्ण एवं तीव्र प्रभाव छोड़ रही है। ओम निश्चल इस तीरंदाजी में काफी दक्ष हैं। यह दक्षता जहां नेताओं को सावधान करती है वही भावक को धैर्य के साथ कुछ सोचने - विचारने के लिए बाध्य करती है। सियासत पर आज कुछ बोलना भी जुर्म है। ओम जी लिखते हैं -
जो झांकता था गिरेबान में सियासत के,
उसी को देखा हवालात ले के जाते हुए।
है सिर्फ उन पे ही अब राजनीति की बरकत,
वतन को खाते हैं घुन - सा जो मुस्कुराते हुए। ( वही, पृष्ठ - 50 )
हमारे देश की राजनीति का यह सबसे बड़ा दुर्भाग्य है कि हमारे नेता- गण घुन के सामान देश को खाए जा रहे हैं पर उनके चेहरे पर न शर्म है, न शिकन। ये सभी चोर - चोर मौसेरे भाई हैं, नंगे हैं सभी हमाम में---'' ये लोग नंगे हैं अब इस कदर हमामों में, कि शर्म आए इन्हें आइना दिखाते हुए। ( वही, पृष्ठ - 50 )
गरीबों का उद्धार करने एवं न्याय दिलाने के नाम पर बनी पार्टियां जब जीतकर सत्तासीन हुईं तो सबसे पहले उनका ध्यान इस बात की ओर गया कि उस राजनीति में वे अपने बेटे - बेटियों एवं सगे - संबंधियों को कैसे लाएं ? खूब जोड़ - जुगत कर सबसे पहले अपने सगे - संबंधियों को अच्छे - अच्छे पदों पर आसीन किए। बाप के बाद बेटा मुख्यमंत्री के पद का वारिस बना। गरीबों को दूर से लॉलीपॉप दिखाया जाता रहा...। ओम निश्चल इस वंशानुगत होती राजनीति पर करारा व्यंग्य करते हैं -
ये नेताओं की नर्सरी है जहां पर,
सियासत भी वंशानुगत हो गई है।
( वही, पृष्ठ - 40 )
इतना ही नहीं, हमारे देश की जनता भी कुछ कम नहीं है। वह ऐसे ही नेताओं की पूजा - अर्चना में रात - दिन लगी हुई है। जनता की यह अंधभक्ति देश को गहन अंधकार में धकेलती जा रही है -
बना कर के वट वृक्ष बस पूजना है,
ये जनता भी विनयावनत हो गई है। ( वही, पृष्ठ - 40 )
सियासत लाठियां भी चलवाती है और धर्म, भाषा, संप्रदाय आदि के नाम पर जनता को अपने स्वार्थगत खेमे की ओर खींचती भी है - तनिक बात पर चलने लगती है लाठी/ गज़ब-सी ये इंसानियत हो गई है। ( वही, पृष्ठ - 40 )
विडंबना है कि जिस व्यक्ति ( नेता ) के हाथ में हम देश की तिजोरी ( सुरक्षा ) सौंप देते हैं, भविष्य सौंप देते हैं ; वही नेता देश का दोहन करने लगता है ---
भविष्य सौंपा है हाथों में वतन का तेरे,
तिजोरी भरने-भराने का चलन बंद करो।
तुम सियासत के खिलाड़ी हो सबको है मालूम,
तुम ये उपदेश, वतन, अमन-वमन बंद करो।
( वही, पृष्ठ - 42 )
वह दौर और था जब नेता देश के सच्चे नायक होते थे। उनकी हरेक बात हमें आश्वस्त करती थी। आज परिस्थितियॉं भिन्न हो चुकी है। अच्छे लोग भी हैं, पर बुरे की तादाद अधिक है। इस देश में बाढ़ का आना भी नेताओं के लिए एक उत्सव - सा है। उनके लिए रुपए कमाने के लिए एक जरिया है -
लो भर गई तिजोरियां फिर बाढ़ में इस बार,
हाक़िम का मगर बाल भी बांका नहीं हुआ।
(वही, पृष्ठ - 54 )
' बाल बांका न होना ' एक प्रचलित मुहावरा है । इस मुहावरे का संयत प्रयोग जितना स्वाभाविक रूप से हुआ है, उतनी ही मारक इसकी ध्वन्यात्मकता भी है। बाढ़ में जन - धन की क्षति होना और दूसरी ओर राहत के पैसे को लूटकर हाकिम का अपनी तिजोरियां भरना; फिर भी हाकिम पर कोई कार्रवाई न होना; ऐसे शब्दों के प्रयोग से यही ध्वनित हो रहा है कि हमारे देश में नीचे से ऊपर तक भ्रष्टाचार भरा हुआ है। उक्त शेर का भाव - साम्य आचार्य जानकी बल्लभ शास्त्री की इन पंक्तियों से काफी मेल खाता है -
ऊपर - ऊपर पी जाते हैं जो पीने वाले हैं,
कहते हैं ऐसे जीते हैं जो जीने वाले हैं।
फिर तो ओम निश्चल का यह कहना लाजिमी है कि -
पहले तो सियासत में कुछ अच्छे लोग थे,
अरसे से इसमें कोई इज़ाफा न हुआ। ( वही, पृष्ठ - 54 )
अब इस मुल्क में ' हिंदू - मुसलमान ' के नाम पर नेतागण अपना जोड़ने और इन कौमों को तोड़ने में लगे हुए हैं -
इस मुल्क की मिट्टी पे क्या एहसान करेंगे,
लीडर हैं महज हिन्दू - मुसलमान करेंगे।
( वही, पृष्ठ - 51 )
अभी हाल ही में हमारे देश में किसान आन्दोलन हुए। सत्तासीन एवं विपक्ष दोनों के नेताओं ने जम कर खेल खेला। राजनीति के चक्रव्यूह में किसान अभिमन्यु जैसे मारे गए। इस घटना को रेखांकित करते हुए बड़े बेबाकी से ओम निश्छल लिखते हैं -
किस हाल में किसान हैं पूछो न ये सवाल,
विषपान कर रहे हैं ये विषपान करेंगे।
समझो न तुम किसान को बेशक महाबली,
निर्णय तो यही देश के खलिहान करेंगे। (वही, पृष्ठ 51)
पूरे विश्व में पर्यावरण की समस्या सुरसा के मुंह के सामान बढ़ती हुई एक बहुत बड़ी समस्या के रूप में दिखाई दे रही है। वैदिक साहित्य से लेकर पौराणिक एवं आधुनिक साहित्य तक इस विषय पर काफी गंभीर चर्चाएं हुई हैं। ऋग्वेद (5 / 84 ) का पृथ्वी सूक्त, अथर्व वेद ( 7/ 19 ) का वृष्टि सूक्त, ऋग्वेद ( 10 / 9) का जल सूक्त, अथर्ववेद ( 3/ 17 ) कृषि सूक्त तथा भविष्य पुराण का वृक्षारोपण माहात्म्य पर्यावरण सुरक्षा पर पर्याप्त चिंतन करते हैं। वृक्षों की पूजा का विधान उनकी पर्यावरण संबंधी उपयोगिता देखकर ही की गई। श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं - ' अश्वत्थ: सर्ववृक्षाणां ' ( 10 / 26 ) । आज भी पर्यावरण को बचाने के लिए विभिन्न संस्थाएं वृक्षारोपण कार्यक्रम को प्रश्रय दे रही हैं। साहित्यकारों ने विशेष रूप से अपनी लेखनी के द्वारा वृक्षारोपण के महत्व को रेखांकित किया है और इसे एक आन्दोलन का रूप दिया है। ओम निश्चल ने भी पर्यावरण संबंधी अनेक ग़ज़ल लिखे हैं; पर उनकी ग़ज़लें पर्यावरण - प्रदूषण के कारणों पर प्रहार करती हैं। उनकी गज़लों में कहीं जंगल का चित्कार सुनाई दे रहा है तो कोई हवा ये पानी को अवैध रूप से बेचने पर तुला हुआ है। जिस देश में पर्यावरण सुरक्षा को लेकर वैदिक युग से ही चिंतन - मंथन होता रहा है उस देश की पर्यावरण के प्रति वर्तमान अवस्था देखकर आश्चर्यचकित होना स्वाभाविक है -
जंगल - जंगल है चिल्लाता हे साधो !
मुझे बचालो वह गुहराता हे साधो।
बेच रहा है कोई साफ हवा - पानी,
कोई पर्यावरण बचाता हे साधो।
पानी के अभाव में कितने मर जाते,
और कोई दस बार नहाता हे साधो।
( ये मन आषाढ़ का बादल हुआ है, पृष्ठ - 96 )
ग्लोबल वार्मिंग पर चिंता जाहिर करते हुए ओम निश्चल लिखते हैं -
जंगल कभी न कटने पाते धू - धू धरा न जलती यह,
ग्लोबल गर्मी यों न सताती इतनी आज़ादी होती । ( वही, पृष्ठ - 75 )
मशहूर कथाकार-आलोचक ज्ञानप्रकाश विवेक ने एक सारगर्भित भूमिका के साथ ओम निश्चल की चुनिंदा गज़लों का एक संचयन ' सो भी जाओ कि रात का पल है'शीर्षक से प्रकाशित कराया है। इसमें एक मशहूर ग़ज़ल है -
कभी मिल के रोने को दिल चाहता है,
कभी दिल भिगोने को जी चाहता है।
कभी भावनाओं की दरिया में बहकर,
समंदर में खोने को जी चाहता है।
कोई गोद ऐसी मिले जैसी मां की,
लिपटकर के सोने को जी चाहता है।
( सो भी जाओ कि रात का पल है, पृष्ठ - 87 )
इस ग़ज़ल का भाव- साम्य, लयात्मकता और मिसरे एक मिल गए हैं -
मुहब्बत का दरिया, जवानी की लहरें,
यहीं डूब जाने को जी चाहता है । (- अमजद नज़मी)
भारत में जाति की राजनीति में नेतागण इतने व्यस्त हैं कि रोजगार की स्थाई व्यवस्था की तरफ उनकी नजर ही नहीं है। मजदूर एक प्रांत से दूसरे प्रांत तक एवं एक देश से दूसरे देश तक मारे - मारे फिर रहे हैं। उन्हें कई स्थानों पर परिवार के साथ जलील होना पड़ता है। ओम निश्चल की यह ग़ज़ल केवल शौकिया ग़ज़ल भर नहीं है, बल्कि मज़दूरों की इस दुर्दशा पर उनकी रोती - कलपती आत्मा हाहाकार कर उठी है -
बहुत आसान नहीं है मजदूर होना,
घरों से अपनी इतनी दूर होना।
कोई ठीहा यहां निश्चित नहीं है,
कभी सूरत कभी बेंगलूर होना।
बहुत याद आ रहा है गांव अपना,
मगर किस्मत में है मजबूर होना।
(सो भी जाओ कि रात का पल है, पृष्ठ - 33)
इन्हीं मजदूरों के मन में यह तड़प हमेशा बनी रहती है कि -
हम अगर उजड़े न होते शहर में आकर,
गाँव के चौपाल की चौपाइयां होते। ( वही, पृष्ठ - 33 )
ओम निश्चल गज़लों को जीवन -सा जीते हैं तो रिश्तों में अपना बसेरा बनाते हैं। रिश्ते उनकी धमनियों में धड़कते हैं, कभी मां बनकर, तो कभी बेटी - बहु और गांव बनकर। उनके रिश्ते मानवीय ही नहीं, मानवेतर प्राणियों, पेड़ - पौधों की धड़कन भी महसूस करते हैं। वे कहीं भी रहते हैं, पर शाम को अपने छत पर लगाए फूल - पौधों को पानी देने, उनसे बातें करने के लिए चले आते हैं। यदि कभी नहीं आते तो उनके लिए कोई वैकल्पिक व्यवस्था कर देते हैं। मैं सोचता हूं, उनकी गज़लों एवं गीतों में आलंबन एवं उद्दीपन की तरलता ऐसे ही रिश्तों से आती है। विश्व की बेटियों की मनोदशा, उनकी लुक - छिप, चुहलबाज़ी और सहजता भरी चंचलता का जो प्रतिबिम्ब ओम निश्चल अपनी ग़ज़ल में उकेरते हैं उस पर मन मुग्ध हो जाता है -
वो हर चीज़ में जायका देखती हैं,
कि जब लड़कियां मायका देखती हैं।
वो करती हैं फरमाइशें अपनी मां से,
फिर उनकी वो प्यारी अदा देखती हैं।
कभी तो रसोई में चुपके से जाकर,
है ताज़ा कहां कुछ बना देखती हैं।
यहीं थी कहीं आम महुआ की बगिया,
वो सुधियों का पौधा हरा देखती हैं। (ये मन आषाढ़ का बादल, पृष्ठ 48)
और सबसे बड़ी बात -
सलामत रहे मेरे बाबुल का बंगला,
यही एक सपना सदा देखती हैं।
( ये मन आषाढ़ का बादल हुआ है, पृष्ठ - 48 )
रिश्तों की मजबूत डोर जब तक क़ायम रहती है तब तक परिवार तीर्थ बना रहता है। बड़े - बुजुर्गों का आशीर्वाद उनकी साया हमें हरेक आपदा से रक्षा करती है। ओम निश्चल कहते हैं -
जब तलक साया है सर पे बड़े - बुजुर्गों का,
तब तलक दिल से उनका एहतराम करते रहो ।
( वही, पृष्ठ - 39 )
अतः अपने परिवार के बड़े - बुजुर्गों को अकेले नहीं छोड़ना है, उन्हें ऐसा नहीं महसूस होने देना है कि उन्हें पूछने वाला कोई नहीं है -
उदास लोगों को बिल्कुल अकेला मत छोड़ो,
जब भी मुमकिन हो उन्हें राम राम करते रहो।
( वही, पृष्ठ - 39 )
मुनव्वर राना ने एक बार ओम निश्चल से बातचीत में कहा था कि ' मेरी शायरी ओल्ड एज होम के खिलाफ ऐलान ए जंग है। बुजुर्गों के प्रति यह स्नेह उसी शायर की शायरी से टपकता है जिसके दिल में अपनों के साथ दूसरों के लिए भी पर्याप्त जगह हो। रिश्तों को सहेजना मुश्किल नहीं है यदि भाव - संवेदन और समर्पण की त्रिवेणी हृदय - गौमुख से प्रवाहित होती रहे । कवि अन्य स्त्रियों में भी अपनी मां का चेहरा ही देखता है, यह है रिश्ते की दरियादिली -
सबको लगता है कि आशिक हुए हम भी उसके,
उसमें आता है नजर हमको तो मां का चेहरा।
( वही, पृष्ठ - 17 )
कवि जब पेड़ - पौधों के दुख - दर्द सुनने लगता है तब मानवेत्तर संबंधों और रिश्तों की अहमियत सामान्य जन के कानों तक पहुंचती है। मादा क्रौंच का चीत्कार आदि कवि के मन में जिस करुणा की सृष्टि करता है उससे बहेलिए को शापित होना पड़ता है। पर उससे भी बढ़कर आज कवि ओम निश्चल के कानों में जंगल का चीत्कार सुनाई दे रहा है, मानो वह कह रहा हो कि उसे कोई कटने से बचा ले -
जंगल - जंगल है चिल्लाता हे साधो !
मुझे बचा लो वह गुहराता हे साधो। ( वही, पृष्ठ - 96 )
लेकिन वही रिश्ते जो कभी हमारे धमनियों में प्रवाहित होते थे आज न जाने कहां और क्यों गायब होते चले जा रहे हैं ! कवि इस संवेदनाशून्य होती जा रही दुनिया को देखकर आश्चर्यचकित है -
कैसे - कैसे हमने मंजर देखे हैं,
भाई के हाथों में खंज़र देखे हैं।
कब से रोया नहीं किसी भी हत्या पर,
एहसासों में उगते बंजर देखे हैं।
( कोई मेरे भीतर जैसे धुन में गाए, पृष्ठ - 43 )
इन टूटते हुए रिश्तों के बीच जब कोई आत्मीयतापूर्ण बातें करने के लिए आगे आता है तो मन - प्रसून खिल उठता है। ऐसा लगता है मानो गमले में कोई फूल खिल गया हो -
आज किसी ने पानी डाला, आज किसी ने बातें की ,
अरसे बाद लगा गमले में कोई फूल खिला हूं मैं। ( वही, पृष्ठ - 44 )
आज कल विमर्शों का बाजार खूब गर्म है। स्त्री विमर्श, दलित विमर्श, आदिवासी विमर्श, वृद्ध विमर्श, किन्नर विमर्श, किसान विमर्श आदि - आदि। ओम निश्चल की ग़ज़लों में ये सारे विमर्श सामाजिक संदर्भों में देखे गए हैं। केवल विमर्श के लिए विमर्श का बानक नहीं रचा गया है उनके यहां। सामाजिक व्यवस्था जब चरमराने लगती है तब ऐसे विमर्श समाज में स्थान पाने लगते हैं । अतः विमर्शों के पहले व्यवस्था पर कुछ चर्चा आवश्यक है। हमारी न्याय व्यवस्था इतनी लचर है कि स्त्री, दलित, आदिवासी एवं किसान विमर्श उसकी असफलता के चलते और महत्वपूर्ण होते जा रहे हैं। ओम निश्चल इस तमाशाई न्याय व्यवस्था पर टिप्पणी करते हैं -
कोई तो है जहॉं पे जुल्म की सुनवाई है,
बरना अब न्याय की चौखट भी तमाशाई है।
जब न्याय व्यवस्था तमाशा हो जाती है तो लोगों का विश्वास उस पर से उठने लगता है और वे कानून अपने हाथ में लेने लगते हैं। विभिन्न विमर्शों में अपने अधिकारों की मांग करना उसी का एक हिस्सा है। सल्फास खाकर दम तोड़ते किसानों पर ओम जी लिखते हैं -
खाकर ये सल्फास जहां पर कितनों ने दम तोड़ दिए,
यों विदर्भ के दुःख का मारा जैसे कोई जिला हूं मैं। (वही, पृष्ठ - 44 )
क्या कारण है कि आज किसान अपने ही उद्यम से त्रस्त हैं । बूढ़े लोग भी अपने आप को ढहता हुआ किला महसूस कर रहे हैं, क्यों ? ओम जी लिखते हैं -
कभी धूम थी चहल - पहल थी इन खंडित प्राचीरों में,
आज बहुत सूनापन मुझमें ढहता हुआ किला हूं मैं। (वही, पृष्ठ - 44 )
स्त्रीवादी विमर्श की मूल समस्याएं वस्तुनिष्ठ कम, भावनात्मक अधिक हैं। भावना के सूक्ष्म मनोविज्ञान पर उतर कर ओम निश्चल इसके कारणों की पड़ताल करते हैं -
डायरी में वह समर्पण की कथा लिखती रही,
जिंदगी भर पर, मुहब्बत की चिता जलती रही।
मर गई थी उसकी सारी चाहतें संसार की,
अपने ज़ख्मों को छुपाकर किन्तु वह जीती रही।
उसके अरमानों ने दम तोड़ा न जाने कितनी बार,
और वह सजदे में झुक कर बंदगी करती रही। ( वही, पृष्ठ - 89 )
फिर क्या, एक दिन तो बहन के जल मरने की खबर तक आ जाती है -
बहन के जैसे ही जलने की खबर आती है,
मेरे भीतर भी पिघलने की खबर आती है। ( वही,पृष्ठ - 50 )
महामारी हो या बाढ़ से प्रभावित मलवे में तब्दील होता शहर इससे उत्पन्न कारुणिक दृश्य से हृदय विगलित होना स्वाभाविक है -
जिंदगी का ये सफर अश्लील होने जा रहा,
इक शहर मलवे में बस तब्दील होने जा रहा। ( वही, पृष्ठ - 48 )
पहाड़ों के अंधाधुंध दोहन के परिणामस्वरूप हमने उत्तराखंड की त्रासदी देखी है। हाल ही में धराली का नेस्तनाबूद होना इसी असंतुलित विकास का परिणाम है। पहाड़ इतने नंगे हो चुके हैं कि वे बर्फबारी और बरसात की मार अपने सीने पर सह नहीं पाते। बूँद अघात सहहिं गिरि कैसे। इस आघात को बर्दाश्त न कर पाने का ही परिणाम है कि कुछ मिनटों में नगर के नगर बह जाते हैं। इसी तरह कोरोना की महामारी ने हमें घुटने टेकवा दिए। हमारी औकात पानी के बुलबुले से कुछ ज्यादा नहीं है। ओम निश्चल इस यथार्थ को ग़ज़ल के एक शेर में इस प्रकार बांधते हैं -
अच्छे - अच्छों ने महामारी में घुटने टेके,
वरना इंसान के तेवर भी हमने देखे हैं। ( वही, पृष्ठ - 42 )
हमने इस महामारी के चलते एक- दूसरे को पहचानना छोड़ दिया । आखिर क्यों ? वे मानते हैं कि " यह किसी भी देश के जैविक विषाणुओं के गुपचुप अनुसंधान का नतीजा हो, उसी का असर है कि पूरी दुनिया उस तबाही की चपेट में आई । " ओम जी निज की पीड़ा को भी यहां अपनी एक खूबसूरत मार्मिक ग़ज़ल में पिरो देते हैं -
है वही दुनिया, वही संसार लेकिन तुम नहीं हो,
चल रहा है जगत का व्यापार लेकिन तुम नहीं हो।
आज शादी का मुहूरत बज रही शहनाइयां,
सज उठे हैं सुखद बंदनवार लेकिन तुम नहीं हो।
जुड़ चुके हैं लोग विद्वत जन सभासद सब यहां,
भर चुका है सघन प्रेक्षागार लेकिन तुम नहीं हो।
( ये जीवन खिलखिलाएगा किसी दिन, पृष्ठ - 62 )
सारांश यह है कि ओम निश्चल ने ग़ज़ल विधा को कल्पनाओं के व्योम से यथार्थ की ठोस ज़मीं पर उतारा है। अपनी ग़ज़लों में उन्होंने भारत ही नहीं, वैश्विक चेतना का दिग्दर्शन कराया है। शायद ही कोई भाव ऐसा है जिसे उन्होंने अपनी ग़ज़लों का विषय न बनाया हो। उनकी ग़ज़लें उर्दू के बहुप्रचलित शब्दों को ग्रहण करती हैं, पर सबसे अधिक तत्सम और लोक प्रचलित तद्भव शब्दों का प्रयोग करती हैं। उनके भाषा- प्रयोग के संबंध में मुझे कबीर की भाषा पर आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की टिप्पणी याद आती है - ' कबीर वाणी के डिक्टेटर हैं.... उन्होंने भाषा से जिस रूप में जो चाहा कहलवा लिया ।' ओम निश्चल भाषा अथवा वाणी के डिक्टेटर तो नहीं हैं, पर भाषा से सब कुछ कहलवा लेने की क्षमता उनमें अवश्य है। ऐसा लगता है, भाषा उनके भावानुकूल दौड़ी हुई उनके पास आ रही है। ग़ज़ल विधा के विशेष मर्मज्ञ और सहृदय आलोचक ज्ञान प्रकाश विवेक लिखते हैं - " ओम निश्चल की ग़ज़लगोई का यह अपना अंदाज है जो उन्हें हिंदी ग़ज़लकारों से भिन्नता प्रदान करता है। वे ग़ज़ल कहते हुए किसी शेर में अनायास ऐसे प्रयोग कर जाते हैं कि नया मुहावरा, नई बात, नया ग़ज़ल - कथन महसूस होने लगता है। " ( सो भी जाओ कि रात का पल है, पृष्ठ - 13 )
ग़ज़ल में लाक्षणिक प्रयोग और व्यंग्यार्थ का अचूक प्रयोग होते देखकर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि ओम निश्चल की ग़ज़लें समसामयिकता के दायरे से बहुत आगे निकल चुकी हैं। युग - युग की दस्तान-ए -हकी़क़त उनकी गज़लों की बानगी बनती जा रही है। ग़ज़ल की संरचनात्मक ताजगी और नूतन तासीर से लबरेज़ वस्तु- विन्यास की उदात्तता उनके ग़ज़लों की अहम विशेषता है। दुष्यंत कुमार ने आपातकाल में आम जन की चीख को अपनी गज़लों का विषय बनाया तो अदम गोंडवी ने सामान्य जन किसान, मजदूरों के अभाव एवं पीड़ा को अपनी गज़लों का मुख्य मुद्दा बनाया। उसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए ओम निश्चल ने समकालीन राजनीति , धर्म एवं अर्थ संबंधी ज्वलंत मुद्दों को अपनी गज़लों का विषय बनाया। उनके यहां किसान की व्यथा एक ओर है तो दूसरी ओर वह अदम्य साहस, दृढ़ संकल्प और अटूट विश्वसनीयता का प्रतीक भी है । इसीलिए वह कहता है -
मेरी पलकों में कई मौसम हैं,
कांधे पे हल उठा के रखता हूँ।
तुम सुनोगे तो भींग जाओगे,
सर पे बादल उठा के रखता हूँ।
(कोई मेरे भीतर जैसे धुन में गाए, पृष्ठ - 38 )
ओम निश्चल अपने ग़ज़ल संग्रहों की भूमिकाओं में अपने विचारों को जिन रूपों में अभिव्यक्त करते हैं उसे पढ़कर यही लगता है कि अपनी गज़लों के माध्यम से वे समाज की विसंगतियों पर सवाल उठा रहे हैं और फिर उसका सांकेतिक समाधान भी दे रहे हैं। वे लिखते हैं - " आजकल रिश्तों पर बड़ी कविताएं लिखी जाती हैं, प्रेम पर बहुत सारी शायरी देखने - पढ़ने को मिलती हैं। लेकिन सच कहें तो यह प्रेम यदि दुनिया में है तो दिखता क्यों नहीं ? दिखता है तो हमारे आचरण और व्यवहार में उतरता क्यों नहीं ? ऐसे ही किन्हीं निराशा पूर्ण क्षणों में उन्होंने कहा है -
कहानी मोड़ देगा एक दिन,
वो रिश्ता तोड़ देगा एक दिन।
मुझे मालूम है उसकी ये फ़ितरत,
मुझे वह छोड़ देगा एक दिन।
सुखों की बारिशें बस चार दिन,
ये ग़म झकझोर देगा एक दिन। "
( ये जीवन खिलखिलाएगा किसी दिन, पृष्ठ - 16)
न जाने कितने ऐसे शब्द-चित्र और लक्ष्यार्थ व व्यंजनागत प्रयोग ओम निश्चल की ग़ज़लों में मिलेंगे जो व्यक्ति, घर, परिवार, समाज, राष्ट्र, विश्व से लेकर मानवेतर संबंधों एवं समस्याओं के सूक्ष्मातिसूक्ष्म दृश्यों की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं जिन्हें अपने दैनिक जीवन में हम देखकर भी अनदेखा कर देते हैं। खास तौर पर बीच-बीच में कलगी की तरह तत्सम का आभिजात्य दिखता है तो बोलचाल के रेख्ते की बानगी भी जिसे उनका लिरिकल आवेग प्रवाही बना देता है। अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण आज ओम निश्चल समकालीन ग़ज़लकारों की अग्रिम पंक्ति में खड़े दिखाई दे रहे हैं। उन्होंने ग़ज़लों को समकालीन सरोकारों से जोड़ने में कामयाबी हासिल की है।
(डॉ.हरेराम पाठक हिंदी के सुधी समालोचक और बहुखंडीय हिंदी आलोचना कोश के संपादक हैं।)
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