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ग़ज़ल के सरोकार और ओम निश्चल

साहित्य
                
                                                         
                            यह आलेख डॉ.हरेराम पाठक ने लिखा है- 
                                                                 
                            

गए कुछ दशकों में डॉ.ओम निश्चल ने हिंदी साहित्य में अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है। महत्वपूर्ण आलोचक होने के साथ साथ एक कवि-गीतकार के रूप में उनका अवदान साहित्य में उल्लेखनीय है। उनके जन्मदिन पर उन्हें याद कर रहे हैं डॉ.हरेराम पाठक

ओम निश्चल नई एवं समकालीन कविता के एक सहृदय आलोचक हैं। उनका कविताध्ययन व्यापक है। उनकी आलोचनात्मक कृतियों में ' कविता के वरिष्ठ नागरिक ', 'चर्चा की गोलमेज पर अरुण कमल ', 'समकालीन हिंदी कविता : ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य ' , 'खुली हथेली तुलसी गंध ' , ' शब्दों से गपशप ',  ' कविता की सगुण इकाई : कुंवर नारायण ', ' कैलाश वाजपेयी'(विनिबंध,साहित्य अकादमी)आदि प्रमुख हैं। ओम निश्चल ने साठोत्तर काव्यालोचन को एक नई दिशा दी है। यह वह जमाना था जब कि आलोचना में बोझिल और अबूझ शब्दों के प्रयोग को पांडित्य का पर्याय समझा जाने लगा था। ऐसी स्थिति में ओम निश्चल ने आलोचना को ' गपशप ' के स्तर पर उतार कर उसे जनोन्मुखता का स्वरूप प्रदान किया । लेकिन भाषा के सतही स्तर से सर्वथा दूर रहते हुए कविता की संवेदना के धरातल पर उतर कर  उन्होंने आलोचना के 'लोचन ' को सामान्य जन से जोड़ते हुए ' गोलमेज ' की-सी वार्ता प्रारंभ की। साहित्य के छात्र  से लेकर विद्वत पीढ़ी तक के सोचने - समझने के भाषाई संस्कार एवं व्यवहार को उन्होंने आलोचना का 'गंतव्य और मंतव्य ' माना। आलोचना के क्षेत्र में इतना करते हुए भी गीत और ग़ज़ल के क्षेत्र में उनका पदार्पण करना कोई आश्चर्य नहीं, तो चिंतन का विषय अवश्य है। आश्चर्य इसलिए नहीं कि अभिव्यक्ति की व्यग्रता लेखक को किसी भी विधा में ले जा सकती है। वे सन् 1976 से ही गीत लिख रहे हैं, फिर वे नवगीत में आए और इन दिनों ग़ज़लों में उनका अवदान सराहा जा रहा है। 

ओम निश्चल गीत और ग़ज़ल में जदीदियत अथवा आधुनिकता के मुहावरे में जो कुछ कह सकते थे, वह आलोचना में कहना संभव नहीं था। समसामयिक,  सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक या आर्थिक परिघटनाएं हमारे अंदर क्षोभ, घृणा, विवशता, दीनता आदि के भाव जिस तीव्रता से प्रकट करती हैं उससे एक सहृदय कवि इतना आहत होता है कि उसकी पीड़ा घनीभूत  होकर हृदय - निर्झर से गीत बन झरने लगती है। कवि - हृदय ओम निश्चल के साथ साथ भी कुछ ऐसा ही होता है ; फलत: वे गीत एवं ग़ज़ल-सृजन की ओर अग्रसर होते हैं। उनका हृदय विश्व वसुधा के दुःख - निस्तारण हेतु व्याकुल हो उठता  है और अनायास ही उनकी लेखनी समसामयिक विद्रूपताओं के चित्र उकेरने लगती है। जिस प्रकार उनकी आलोचना ने ' लालित्यालोचन ' की गरिमा विकसित की, उसी प्रकार उनके गीत - ग़ज़ल भावों के आस्फालन से दूर रहकर परदुखकातरता और भावप्रवणता से संपृक्त रहे। उनमें संश्लिष्टता, संघनता और सांद्रता का सुघर विनियोग देखने को मिलता है।  अब तक ओम निश्चल के चार ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं -  ' मेरा दुख सिरहाने रख दो' ;  ' ये जीवन खिलखिलाएगा एक दिन' ; ' कोई मेरे भीतर जैसे धुन में गाए'   और ' ये मन  आषाढ़ का बादल हुआ है ' । उनकी ग़ज़लों का चयन ग़ज़ल के जाने माने आलोचक, विवेचक एवं अध्येता ज्ञानप्रकाश विवेक  ने भी संपादित किया है जिसका शीर्षक है:'सो भी जाओ की रात का पल है ।' इसकी लंबी भूमिका में विवेक ने ओम निश्चल की भाषाई प्रयोगधर्मिता को ग़ज़ल के लिए एक उपलब्धि माना है।

      यों तो ओम निश्चल अपने शुरुआती दौर से ही ग़ज़लें कह रहे थे। उनके पहले संग्रह 'शब्द सक्रिय हैं' में भी कुछ ग़ज़लें संग्रहीत हैं जो इस बात का प्रमाण हैं कि वे ग़ज़ल के छंद, मीटर व शेरियत से वाबस्ता रहे हैं। लेकिन हाल के एक दशक में उनकी ग़जल रचना में जैसे एक उबाल आया है। समाज, सियासत, संस्कृति और बदलती मनुष्यता की शिनाख्त़ उन्होंने अपनी ग़ज़लों में की है। उनका संग्रह ' मेरा दुख सिरहाने रख दो ' उनकी सुख़नवरी का परिचायक है। एक गीतकार जब ग़ज़ल जैसी काव्य शैली में उतरता है तो उनके कवि का बुनियादी रंग-रोगन और अंदाज़ ए बयॉं एकदम खत्म नहीं होता। एक तरह से यह सीमा भी है और यही विशिष्टता भी कि ओम जी की ग़ज़लें पहली बार उनके भीतर  ग़ज़ल की बेहतरीन समझ की ओर इशारा करती हैं। 

'मेरा दुख सिरहाने रख दो'  की ग़ज़लों को यों तो संकोचवश ओम निश्चल ने गीतिका कहा है किन्तु ये ग़ज़लें ही हैं। इस बार में उन्होंने अपनी भूमिका में यह बात स्पष्ट भी की है। शायद वे नीरज से प्रभावित रहे हों जिन्होंने अपनी ग़ज़लों को गीतिका का नाम दिया था। वे लिखते हैं कि '' गुलाब खंडेलवाल,रामावतार त्यागी, ज्ञानप्रकाश विवेक, सुरेंद्र चतुर्वेदी व शिव ओम अंबर आदि की ग़ज़लों को पढ़ता हूँ तो मुझे उसमें हिंदी रचनाशीलता की बुनियादी तासीर नज़र आती है।''  ओम निश्चल की शायरी में उनका निज और सामाजिक दोनों मुखर है। जहां 'वे मेरा दुख सिरहाने रख दो' जैसी निज की पीड़ा का इज़हार करते हैं, उसी तरह वे समाज देश और दुनिया के मुद्दों पर हमलावर नज़र आते हैं । अफगानिस्तान में जब तालिबान का कहर जारी था तब  इस कवि ने लिखा था -- 

गश्त दहशत लगा रही है फिर 
खौफ़ राइफल जगा रही है फिर 

तालिबानों ने सिर उठाया है
सिर तबाही उठा रही है फिर 
**    **     **
फिर धधकता है कोई काबुल 
फिर सुबकती यहां पे औरत है 

तालिबानों के प्रेत नाच रहे 
कौन रोके कि किसकी कूवत है (मेरा दुख सिरहाने रख दो; पृष्ठ112)


काबुल की तत्कालीन तालिबानी गतिविधियों को जिस शिद्दत से ओम निश्चल ने दर्ज किया है मैं नहीं समझता,  अपनी ग़ज़लों में किसी और समकालीन शायर ने किया है । उनकी एक और ग़ज़ल के चंद अशआर देखें -- 
जर्रा जर्रा काबुल काबुल 
उजड़ा बिखरा काबुल काबुल 

दूर जा गिरी बिटिया बोली 
मुझे बचा लो बाबुल बाबुल (वही, पृष्ठ 116)



जहां इस संग्रह में ओम जी की कुछ साफ्ट ग़ज़लें हैं -- मन है अगर विह्वल लिखो/ तुम हृदय की हलचल लिखो। वहीं ऐसे ललित मनुहार भी कि -- आ भी जा आवारा बादल देर न कर/ खेतों में बरसा जा दृगजल देर न कर। एक गज़ल में वे तालीम ले रहे गरीब  बच्चों पर दृष्टि डालतेहुए कहते हैं -- 

चाहता हूँ कि तितलियॉं बॉंटूँ 
साथ मिल कर उदासियॉं बॉंटूँ 

उसकी खुशियों में झूम कर नाचूँ 
और बच्चों को कापियॉं बाँटूँ   (वही, पृष्ठ 25)


यही वे सरोकार हैं जो शायर से यह कहलवाती है : 

ऐ दरख़्तों सुनो न सोना अभी 
कहते हैं, आरियॉं बची हैं अभी । 

राख जनता को मत समझ लेना 
उसमें चिन्गारियां बची हैं अभी । (वही, पृष्ठ 91 )

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एक दिन पहले

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