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अकबर इलाहाबादी की ग़ज़ल- कट गई झगड़े में सारी रात वस्ल-ए-यार की

अकबर इलाहाबादी
                
                                                         
                            कट गई झगड़े में सारी रात वस्ल-ए-यार की
                                                                 
                            
शाम को बोसा लिया था, सुबह तक तक़रार की

ज़िन्दगी मुमकिन नहीं अब आशिक़-ए-बीमार की
छिद गई हैं बरछियाँ दिल में निगाह-ए-यार की
 

हम जो कहते थे न जाना बज़्म में *अग़यार की  (*अग़यार - ग़ैर)
देख लो नीची निगाहें हो गईं सरकार की

ज़हर देता है तो दे, ज़ालिम मगर *तसकीन को  (*तसकीन - तसल्ली)
इसमें कुछ तो चाशनी हो शरब-ए-दीदार की
 
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2 वर्ष पहले

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