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मिर्ज़ा ग़ालिब: इश्क़ पर ज़ोर नहीं है ये वो आतिश 'ग़ालिब', कि लगाए न लगे और बुझाए न बने

मिर्ज़ा ग़ालिब: इश्क़ पर ज़ोर नहीं है ये वो आतिश 'ग़ालिब', कि लगाए न लगे और बुझाए न बने
                
                                                         
                            नुक्ता-चीं है ग़म-ए-दिल उस को सुनाए न बने 
                                                                 
                            
क्या बने बात जहाँ बात बनाए न बने 

मैं बुलाता तो हूँ उस को मगर ऐ जज़्बा-ए-दिल 
उस पे बन जाए कुछ ऐसी कि बिन आए न बने 

खेल समझा है कहीं छोड़ न दे भूल न जाए 
काश यूँ भी हो कि बिन मेरे सताए न बने 

ग़ैर फिरता है लिए यूँ तिरे ख़त को कि अगर 
कोई पूछे कि ये क्या है तो छुपाए न बने 

इस नज़ाकत का बुरा हो वो भले हैं तो क्या 
हाथ आवें तो उन्हें हाथ लगाए न बने 

कह सके कौन कि ये जल्वागरी किस की है 
पर्दा छोड़ा है वो उस ने कि उठाए न बने 

मौत की राह न देखूँ कि बिन आए न रहे 
तुम को चाहूँ कि न आओ तो बुलाए न बने 

बोझ वो सर से गिरा है कि उठाए न उठे 
काम वो आन पड़ा है कि बनाए न बने 

इश्क़ पर ज़ोर नहीं है ये वो आतिश 'ग़ालिब' 
कि लगाए न लगे और बुझाए न बने 
3 वर्ष पहले

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