जानती तो सब हो तुम,
फिर क्यूं करती हो ख़ुद को परे
मन तुम्हारा बेचैन रहता है,
असंख्य ख़्वाब बुनता है
फिर भी रहती हो डरी डरी।
जब रचा था ये विश्व उसने,
तो नहीं बनाया था तुम्हें
यूं बिलखने को हरदम,
हर वक़्त अपने मन को मारकर
दूसरों की ख़ुशी
ये भी नहीं सिखाया था उसने
पर जब तुम ये सब करती हुई
ख़ुश सी दिखी, जी उठी
तब उसे लगा होगा
कि यही है तुम्हारा वजूद।
फिर अब मौन रहकर,
खोई खोई सी, परे हटकर
मत डालो उस विधाता को
असमंजस में, कि उसे लगे
ये मैंने क्या गढ़ दिया?
अपने होने को किसी एक
परिभाषा तक सीमित मत करो
कि तुमसे ही ये सृष्टि है,
तुमसे है ममत्व सारा
तुम ना हो तो, हे देवी
विश्व है फिर किसे गवारा।
- सुरभि नोगजा
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4 वर्ष पहले
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