बचपन में मेरी एक दोस्त थी, पंजाबी थी - वह बताती थी कि उसकी परिवार विभाजन में भारत आया था। हम दोस्तों ने कभी इस संबंध में उससे बहुत सवाल नहीं किए लेकिन मैं उसे जितनी बार देखती मेरे मन में पाकिस्तान की छवि उभरने लगती थी। रास्ते में एक गली पड़ती जहां एक बुज़ुर्ग महिला सड़क पर रूई के गद्दे तैयार करती थी। उसका छोटा सा कमरा सड़क से ही दिखता था और मैं हमेशा सोचती कि वह भी शायद पाकिस्तान से आई है। अपनी मिट्टी को छोड़कर किसी और जगह जाकर बसना और वहां फिर शून्य से जीवन को बसाना कितना मुश्किल रहा होगा, तब जब उनमें से कई अपने जीवन के अंतिम पड़ाव में होंगे।
मेरे एक दोस्त को इस विभीषिका से बड़ा दुख होता। वह सोचता कि वह उस समय होता तो क्रान्ति करता और जहां भी होता लेकिन अपनी मिट्टी चुनता। विभाजन के बारे में सोचकर ही उसे गुस्सा आने लगता था। अब तो उस घटना को बीते 77 साल हो चुके हैं। दुनिया में और भी मरहले उठ खड़े हुए हैं फिर अतीत के घाव को कब तक याद करना। घाव को याद करने से सिवा दुख के और मिलेगा क्या। होने, भोगने और सोचने में फ़र्क़ है। हमारी पीढ़ियां सोच भर ही सकती हैं बस लेकिन जिन्होंने भोगा होगा, असल ज़ख़्म तो उन्हीं के हैं।
विभाजन पर चाहें रावी पार हो या ट्रेन टू पाकिस्तान - पढ़ते समय एक सिहरन तो होती है। किताब बंद करते समय एक तसल्ली कि हम उस ज़माने में न हुए जब अपने बसे-बसाए घर, धन, यश को छोड़ अनिश्चितता की चौखट पार करती हो। मैंने अभी गीत सर की सिमसिम पढ़ी है। किताब 2023 जनवरी में आई, 2023 मार्च में मेरे हाथ में थी। लेकिन किताबें ख़ुद चुनती हैं शायद कि उन्हें कब पढ़ा जाए, तो यही समय नियत था। देर से सही लेकिन पूरी तल्लीनता के साथ मैंने किताब पूरी की। किताब की जिल्द विभाजन की उसी चोट से बनी है जिसमें दर्द है, स्मृति है, ज़मीन है, क़िस्से हैं। किसी बुज़ुर्ग की जवानी के ख्वाब हैं, एक खिड़की है जिस पर ह्रदय का एक हिस्सा उग आया है, पत्र हैं जो अनंत काल तक किसी को मिल जाने की प्रतीक्षा में हैं। कि कई बार हमारी जीवन ही उस प्रेमपत्र की तरह हो जाता है जिसे गलत पते पर भेज दिया गया है।
किताब को पढ़ते हुए मुझे वो दोस्त याद आई और घाट पर बना उसका घर जिसे हम दूर से देखते थे। मुझे लगता कि किसी दूसरे मुल्क में जाकर फिर अपना आशियाना बनाने में मन कितनी टूटता होगा, वो भी तब जब कारण सियासी हों। मुझे रूई के गद्दे पीटती वो महिला याद आई जिसके बर्तन उससे भी पुराने लगते थे। मुझे वो दोस्त याद आया जो उस ज़माने की बातें करता था। होने-भोगने और सोचने में जो अंतर है उस अंतर को पाटने का काम किताबें करती हैं। एक पल को लगता है कि सब कुछ सामने ही तो हो रहा है। कि कोई सिमसिम का मंत्र होता और कब वहीं ठीक हो जाता।
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