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श्रीलाल शुक्ल के 100 वर्ष: ‘राग दरबारी’ के रचनाकार की स्मृति-शेष

100 Years of Shrilal Shukla: Remembering the Bard of Raag Darbari
                
                                                         
                            
हिन्दी साहित्य के महान लेखक श्रीलाल शुक्ल का कालजयी उपन्यास ‘राग दरबारी’ जब पहली बार सामने आया, तो हिन्दी साहित्य की दुनिया के कुछ हिस्सों में उसे उपेक्षा और उपहास का सामना करना पड़ा। प्रसिद्ध आलोचक नेमीचंद जैन ने इसे 'असंतोष का शोर' कहा, जबकि श्रीपत राय ने इसे 'महान ऊब का महान उपन्यास' करार दिया।
लेकिन समय ने इन आकलनों को ग़लत साबित किया। अगले ही वर्ष 1969 में श्रीलाल शुक्ल को ‘राग दरबारी’ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। यह व्यंग्यात्मक उपन्यास आज हिन्दी साहित्य की सबसे अधिक पढ़ी और अनूदित कृतियों में शामिल है। बुधवार को श्रीलाल शुक्ल की जन्मशती पूरी हुई - वे आज 100 वर्ष के होते।

1968 में प्रकाशित ‘राग दरबारी’ ने श्रीलाल शुक्ल को हिन्दी व्यंग्य-परंपरा का पर्याय बना दिया। 2011 में उनके निधन तक वे 25 से अधिक पुस्तकें लिख चुके थे, जिनमें ‘मकान’, ‘सूनी घाटी का सूरज’, ‘पहला पड़ाव’ और ‘बिश्रामपुर का संत’ प्रमुख हैं। 2005 में प्रकाशित निबंध-संग्रह ‘श्रीलाल शुक्ल: जीवन ही जीवन’ में, मोहनलालगंज (उत्तर प्रदेश) में जन्मे आईएएस अधिकारी ने लिखा कि ‘राग दरबारी’ ने उन्हें लगभग छह वर्षों तक बीमार रखा। वे स्वयं को 'एक जिम्मेदार गृहस्थ, जो एक प्रेमिका के साथ रह रहा हो' जैसा महसूस करने लगे थे।

शुक्ल लिखते हैं -
“दिन-रात उन बदतमीज़ पात्रों के साथ रहते हुए मेरी ज़बान घिस गई। भद्र महिलाएँ खाने की मेज़ पर भौंहें चढ़ाने लगीं। मैं परिवार से बचने लगा और परिवार मुझसे। समस्या यह थी कि किताब लिखने के लिए कोई जगह ठीक नहीं लगती थी। आख़िरकार मैंने अपना घर पत्नी, बच्चों और रिश्तेदारों के हवाले किया, अलग फ़्लैट ले लिया, कार को सुनसान जगह खड़ा किया और महीनों तक उसकी सीट पर बैठकर लिखा।”

काल्पनिक गाँव शिवपालगंज में स्थित ‘राग दरबारी’ दरअसल भारत की सत्ता-संरचना पर तीखा व्यंग्य है, जहाँ गाँव पूरे देश का रूपक बन जाता है - एक ऐसा राष्ट्र जो शासन और नैतिकता दोनों में असफल रहा है। इस उपन्यास की ताक़त इसके पात्र हैं - नैतिक संतुलन से विहीन, शिष्टाचार से रहित - जो एक ऐसे समाज की सामूहिक तस्वीर पेश करते हैं जहाँ भ्रष्टाचार सामान्य है, आदर्श केवल सजावटी हैं और ईमानदारी नहीं बल्कि अनुकूलन ही जीवित रहने का साधन है।

कवि और आलोचक अशोक वाजपेयी के अनुसार, श्रीलाल शुक्ल ने भारत में विकास को लेकर बने मिथक को तोड़ा। उन्होंने कहा, “‘राग दरबारी’ में उन्होंने दिखाया कि तथाकथित विकास किस तरह विरोधाभासों, भ्रष्टाचार, देरी, लापरवाही और जड़ता से भरा हुआ है और यह आम लोगों के जीवन को कैसे प्रभावित करता है।”
वाजपेयी के अनुसार, श्रीलाल शुक्ल हिन्दी साहित्य में आधुनिकता के महत्त्वपूर्ण इतिहासकार भी थे।
“पिछले सौ वर्षों के हिन्दी साहित्य में वे निस्संदेह एक महान हस्ती हैं। ये सौ वर्ष हिन्दी साहित्य की आधुनिकता के भी सौ वर्ष हैं, और शुक्ल न केवल इसके हिस्सेदार थे, बल्कि इसके दस्तावेज़कार भी।”

राजकमल प्रकाशन के अध्यक्ष अशोक महेश्वरी कहते हैं कि "शुक्ल ने गाँव का वह रूप दिखाया जो प्रेमचंद या मैथिलीशरण गुप्त जैसे लेखक भी पूरी तरह नहीं दिखा पाए।‘राग दरबारी’ गाँवों की कुरूपता, राजनीतिक चालबाज़ियों और आम लोगों की कठिनाइयों को यथार्थ रूप में सामने रखता है। यही कारण है कि यह उपन्यास आज भी प्रासंगिक है।”

श्रीलाल शुक्ल की रचनाओं में नैतिक और राजनीतिक पतन एक स्थायी विषय रहा।
‘मकान’ में सितारवादक नारायण बनर्जी कला की शुद्धता और सांसारिक सफलता के बीच फँसा रहता है, जबकि ‘बिश्रामपुर का संत’ स्वतंत्रता के बाद के भारत में लोकतंत्र की विफलताओं को उजागर करता है।

उपन्यासकार असगर वजाहत के अनुसार, "श्रीलाल शुक्ल को समझने के लिए केवल ‘राग दरबारी’ पढ़ना पर्याप्त नहीं है। उनकी अन्य रचनाएँ भी उतनी ही महत्त्वपूर्ण हैं। उन्हें सही मायने में समझने के लिए पूरा साहित्य पढ़ना ज़रूरी है।”

श्रीलाल शुक्ल को 1999 में ‘बिश्रामपुर का संत’ के लिए व्यास सम्मान, 2008 में पद्म भूषण और 2011 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। व्यंग्य से ढकी उनकी यथार्थपरक शैली ने न तो पीड़ितों का महिमामंडन किया और न ही शक्तियों का दानवीकरण -  उनकी आलोचना का भार स्वयं विडंबना ने उठाया।

‘राग दरबारी’ के अंत में वे मध्यवर्गीय व्यक्ति से कहते हैं - 
“जहाँ भी जगह मिले, जाकर छिप जाओ। भागो, भागो, भागो। यथार्थ तुम्हारा पीछा कर रहा है।”

3 घंटे पहले

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