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पल्प फिक्शन: यानी वो दौर जब नेटफ्लिक्स के थ्रिलर नहीं हुआ करते थे

begampul-to-daryaganj-the-tale-of-desi-pulp book by yashwant vyas
                
                                                         
                            

90 के दशक में पैदा हुए बच्चे जब तक किताब पढ़ने लायक हुए, उनके पास मनोरंजन के लिए चंपक, नंदन, चाचा-चौधरी थे। समय के साथ टीवी और मोबाइल भी जीवनशैली का हिस्सा होते गए। किताबें कहीं पीछे छूटती गईं - जब तक कि दिलचस्पी वाकई पन्ने पलटने में ही न हो। उसी दौर में पैदा हुई मैं, जिसके जीवन में किताबें रहीं लेकिन पल्प की उपस्थिति नहीं। हां, स्टेशन पर स्टॉल्स के पास नज़र घुमाते वे किताबें कभी दिखती थीं, जिनके अजीब से नाम और भड़काऊ तस्वीरें होती थीं। या कभी कोई सहयात्री उन किताबों को संकोच के साथ लेता हुआ दीखता। बाद में, साहित्य में थोड़े बहुत दखल के बाद लुग्दी साहित्य का ज़िक्र अक्सर सुना। इसी लुग्दी के समादृत लेखक सुरेन्द्र मोहन पाठक की जब जीवनी छपकर आई तो हम दोस्त मिलकर महफ़िलों में अक्सर ज़िक्र करते कि पाठक ने 300 पार उपन्यास लिखकर कितने और पाठक बनाए होंगे। 

फिर पल्प के बीतते हुए संसार और नेटफ्लिक्स पर उतरती एकांत के सौ वर्ष जैसे बदलते ज़माने के बीच झूलती हमारी पीढ़ी कभी पल्प की दहलीज़ के उस पार नहीं पहुंची। कि एक हफ़्ते पहले मुझे वरिष्ठ पत्रकार और लेखक यशवंत व्यास की किताब मिली ‘बेगमपुल से दरियागंज’ बड़े अक्षरों में लिखे इस शीर्षक के नीचे छोटे अक्षरों में लिखा है ‘देसी पल्प की दिलचस्प दास्तान।’ पल्प के इस संसार में सुदूर तक प्रवेश का पहला अवसर। लेकिन इस पूर्वाग्रह के साथ कि मेरी दिलचस्पी एक फौरी पाठक भर जितनी ही होगी। स्टेशन पर बिकती हल्के-श्यामल पन्नों की किताबों पर कोई किताब लिखी जा सकेगी, यह विचार ही विस्मय से भरता है। तिस पर वे किताबें जिनका एक पन्ना आज तक पढ़ा नहीं। यूं सुरेन्द्र मोहन पाठक और गुलशन नन्दा के ख़ूब क़िस्से सुने लेकिन व्यक्तित्व भर के, कृतित्व से तो अनुभव अछूता ही रहा। 

ख़ैर, लगभग 210 पेज की ये किताब पूरा करने में हफ़्ते भर का समय लगा। ये किताब उन तमाम नामों से अटी पड़ी है, जिनका आज ज़िक्र तक नहीं मिलता जबकि उनको पढ़-पढ़ कर कितनों की रेल-यात्रा सुगम हुई। किताब की भाषा गद्य में भी लयात्मक है कि पहला पन्ना कब 20वें तक ख़िसक आता है, पता नहीं चलता। फिर भी 200 पेज में हफ़्ते भर का समय? चूंकि पल्प भ्रमण के इस संसार में किसी नौसिखिए के लिए वे तमाम आकर्षण हैं कि वह ठहर जाता है। जब आप पढ़ेंगे कि गुलशन नन्दा के उपन्यास ‘झील के उस पार’ की पांच लाख प्रतियां बिकी थीं जबकि आज भी प्रकाशक किसी लेखक की 500 कॉपी से ज़्यादा का पहला संस्करण निकालने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। यह मेरी कल्पना के परे की बात थी कि पल्प फ़िक्शन का एक पूरा अलग संसार है जहां स्टार लेखक हुआ करते थे, जहां लेखक के नाम का इतना वजन था कि दूसरे प्रकाशक उनके नाम से घोस्ट राइटिंग करवा कर किताबें बेचा करते थे। ऐसे कितने क़िस्से हैं जो पल्प की दुनिया को किसी मायने में मुख्यधारा से कमतर नहीं रखते।

जबकि एक आम धारणा है कि पल्प लेखन अधिक एरोटिक, अश्लील होता था और लोग उसे या तो किताबों की शेल्फ़ में छुपाकर रखते थे या तकिए के नीचे। इस पर किताब के लेखक यशवंत व्यास ने लिखा है कि यह लेखक का अपना निजी चुनाव था कि वह किताब की कहानी को किस तरह प्रस्तुत करना चाहता है। पल्प में भड़काऊ कवर पृष्ठ, वैसे ही शीर्षक और जोशीली-जासूसी कहानियां तो होती थीं और इन कवर पृष्ठों पर नीना गुप्ता जैसे नाम भी छपे लेकिन वे अश्लील ही होंगी, ये कोई आवश्यक शर्त नहीं थी।

इस किताब का शीर्षक बेगमपुल से दरियागंज है, बेगमपुल मेरठ में एक जगह है जहां पल्प की बनती हुई एक बड़ी दुनिया हुआ करती थी, लेखक ने बताया कि वहां एक ही परिवार के कितने ही लोग थे जो सिर्फ़ प्रकाशन के धंधे में थे और दूसरी जगह दरियागंज - जहां आज भी किताबों का संसार जगमग रहता है। शीर्षक भले इन दो जगहों की बात करे लेकिन किताब में पूरे विश्व का भ्रमण है, शेरलॉक होम्स की बेकर स्ट्रीट से लेकर बंगाल के ब्योमकेश बख्शी तक। कितने ही नाम हैं जिनका ज़िक्र इस किताब में मिलता है, वे नाम भी जिन्हें मुख्यधारा का संवाहक माना जाता है। इसलिए पल्प के संसार में आते समय पूर्वाग्रहों के वे जाल टूटते हैं जब पता चले कि महापंडित राहुल सांकृत्यायन और श्रीलाल शुक्ल समेत रांगेय रागव ने भी इस दुनिया से प्रभावित होकर जासूसी उपन्यास लिखे हैं। 

इस संसार से फ़िल्मी दुनिया भी कब अछूती रही है। कुछ समय पहले मैंने गुरुदत्त पर लिखी एक जीवनी पढ़ी थी जिसमें ज़िक्र था कि प्यासा उनके पिता पर थी, जिसकी कहानी को लेकर वह बेहद भावुक भी थे। लेकिन इस किताब को पढ़कर पता चला कि पल्प लेखक दत्त भारती ने इस फ़िल्म की कहानी को अपनी कहानी की चोरी बताते हुए केस किया था जिसे वे जीत भी गए थे लेकिन तब तक गुरुदत्त की मृत्यु हो चुकी थी और उन्होंने एक सादे काग़ज़ पर गीता दत्त का ऑटोग्राफ़ लेकर केस छोड़ दिया। किताब का हर पन्ना ऐसे कितने क़िस्सों से भरा पड़ा है। 

चौदह चैप्टर के बयानों के साथ पल्प की दुनिया को समेटने की ये अद्भुत क्रिया है। इस किताब के आख़िर-आख़िर तक आते जब लगेगा कि पल्प और उस काले काग़ज़ की दुनिया अब सिमटने की तैयारी पर है तो लेखक ने मौजूदा समय के कुछ प्रमाणों और बदलती दुनियावी पाठकीय संरचना का उदाहरण देकर बताया है कि कैसे अब काग़ज़ का वो पल्प सीरीज़ या डिजिटल माध्यम से लोगों तक पहुंच रहा है चाहें वो गैंग्स ऑफ़ वसेपुर हो या पंचायत। पल्प में जो कुछ लिखा गया और वो सब दर्शाया जा रहा है। कुल मिलाकर कंटेंट वही है, बस माध्यम बदल गया है। 

किताब के लेखक यशवंत व्यास इससे पहले मोहब्बत की दुकान, बोस्कीयाना, कॉमरेड गोडसे जैसी किताबें लिख चुके हैं। दिल्ली की एक गली में जाकर वेदप्रकाश कंबोज से मिलती कहानी कब पल्प की दुनिया में गंभीर दर्शन करवाती है, पता भी नहीं चलता। ये तो बाहर आकर पता चलता है। निर्मल वर्मा ने कहा था न कि इस दुनिया में कितनी दुनियाएं ख़ाली पड़ी रहती हैं। वे समानांतर संसार की किसी ख़ाली दुनिया की बात करते हैं, जबकि इसी समानांतर संसार में पल्प की दुनिया का तो भरा-पूरा संसार है जहां लेखकों को कमाई होती थी, प्रकाशक उसी नाम का लेखक तक खड़ा कर देते थे, लोग उन श्यामल रंगों की किताबों से डोपमीन पाते। 

जब हम क्रान्ति की बात करते हैं, इतनी चर्चा करते हैं तो ये किताब इसलिए भी पढ़नी चाहिए कि ज्ञानवर्धन हो कि पल्प उस ज़माने में मुख्यधारा के समानांतर कितनी बड़ी क्रान्ति थी। ये किताबें इतने नामों से भरी पड़ी है कि उनकी लिस्ट बनाकर उनके लिखे को पढ़ने में और कम-अज़-कम और छह महीने तो बिताए ही जा सकते हैं। दरियागंज के़ साथ पल्प ख़त्म नहीं होता वो डिजिटल माध्यमों में रूपांतरित हुआ। पल्प यानी वो दौर जब नेटफ़्लिक्स के थ्रिलर नहीं होते थे, क्यूंकि ये किताबें ही वे थ्रिलर हुआ करती थीं। 

एक महीने पहले

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