घर में पाते ही एकांत
मैं रटने लगा डार्विन का सिद्धांत
क्या हमारे पूर्वज बंदर थे,
क्य हमारे पूर्वज बंदर थे?
और जब मैं रट रहा था
तब पिताजी अंदर थे
वे आए और चिल्लाए—“ये क्या बकता है,
पूर्वजों को बंदर कहता है?
सोचा था पढ़ेगा-लिखेगा
बाप-दादों का नाम रौशन करेगा
नाम रौशन करना तो दूर
उल्टे बता रहा है उनको लंगूर?”
पिताजी ने खींचके एक हाथ दिया
मैंने डार्विन साहब को याद किया
कि आप तो मर गए
मेरी जान को मुसीबत कर गए
बंदर को पूर्वज मानूँ तो घर में पिटाई
न मानूँ तो स्कूल में धुलाई
मैंने सोचा, सबसे पूछा जाए
और फिर किसी नतीजे पर पहुँचा जाए
मैंने पूछा अपने पड़ोसी से—
“क्या हमारे पूर्वज बंदर थे?”
तो वे बोले—“तुम्हारे होंगे
हमारे पूर्वज तो अगरवाल थे।”
मैंने एक सिनेमा के दर्शक से पूछा—
“क्या आदमी पहले बंदर था?”
वह बोला—“था क्या, आज भी है
विश्वास न हो, तो
इस फ़िल्म में हीरो को देख लो
बंदर से दो क़दम आगे है
अगर कपड़े निकाल दो तो पूरा बंदर है।”
एक दिन दादाजी सायंकालीन
आम के भयंकर शौक़ीन
अपने एक मित्र राम दुलारे के संग बाज़ार को गए
आम का दाम सुन
राम दुलारे राम को प्यारे हो गए,
दादाजी मुँह लटकाए, घर वापस आए
मैंने दादाजी से पूछा—
“क्या आदमी पहले बंदर था?”
दादाजी बोले रोते-रोते—
“काश! हम आज भी बंदर होते
तो राम दुलारे, यूँ नहीं मरता
किसी पेड़ पे चढ़ता, जी भरके आम चूसता
न बाज़ार जाता, न भाव पूछता
अगर बंदर होता तो राम दुलारे यूँ नहीं मरता!”
आगे पढ़ें
कमेंट
कमेंट X