अपने विचारों, भावनाओं और संवेदनाओं को व्यक्त करने का सबसे सशक्त माध्यम मातृभाषा है। इसी के जरिये हम अपनी बात को सहजता और सुगमता से दूसरों तक पहुंचा पाते हैं। हिंदी की लोकप्रियता और पाठकों से उसके दिली रिश्तों को देखते हुए उसके प्रचार-प्रसार के लिए अमर उजाला ने ‘हिंदी हैं हम’ अभियान की शुरुआत की है। इस कड़ी में साहित्यकारों के लेखकीय अवदानों को अमर उजाला और अमर उजाला काव्य हिंदी हैं हम श्रृंखला के तहत पाठकों तक पहुंचाने का प्रयास कर रहा है। हिंदी हैं हम शब्द श्रृंखला में आज का शब्द है -उच्छृंखलता, जिसका अर्थ है- उद्दंडता; स्वेच्छाचारिता; निरंकुशता। प्रस्तुत है नागार्जुन की कविता: सबके लेखे सदा सुलभ...
गाल-गाल पर
दस-दस चुम्बन
देह-देह को दो आलिंगन
आदि सृष्टि का चंचल शिशु मैं
त्रिभुवन का मैं परम पितामह
व्यक्ति-व्यक्ति का निर्माता मैं
ऋचा-ऋचा का उद्गाता मैं
कहाँ नहीं हूँ, कौन नहीं हूँ
अजी यही हूँ, अजी वहीं हूँ
जहाँ चाहिए वहाँ मिलूँगा
स्थापित कर लो, नहीं हिलूँगा
उच्छृंखलता पर अनुशासन
दया-धरम पर मैं हूँ राशन
सबके लेखे सदा-सुलभ मैं
अति दुर्लभ मैं, अति दुर्लभ मैं
महाकाल भी निगल न पाए
वामन हूँ मैं, मैं विराट हूँ
मैं विराट हूँ, मैं वामन हूँ
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3 वर्ष पहले
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