राजेश जोशी वर्तमान हिंदी कविता के उन महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षरों में हैं, जिनसे समकालीन कविता की पहचान बनी है। 18 जुलाई, 1946 को मध्य प्रदेश के नरसिंहगढ़ में जन्मे राजेश जोशी 'एक दिन बोलेंगे पेड़', 'मिट्टी का चेहरा', 'नेपथ्य में हंसी' और 'दो पंक्तियों के बीच' और 'जिद' जैसे काव्य संग्रहों के अलावा मायकोवस्की की कविताओं का अनुवाद ‘पतलून पहना आदमी’ और भृतहरि की कविताओं का अनुवाद 'धरती का कल्पतरु' के लिए खासे चर्चित रहे हैं। साल 2002 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित राजेश जोशी मानवीय मूल्यों और अधिकारों के कवि हैं।
संवेदनशीलता और जनपक्षधरता उनकी कविताओं का सहज गुण है। 90 के दशक में समाजवादी वटवृक्ष सोवियत यूनियन के विघटन के साथ ही एकध्रुवीय हो चुके विश्व और उदारीकरण, निजीकरण तथा बाजारवाद की आँधी में मनुष्यता तिनकों की तरह बिखरती गयी। इस क्षत-विक्षत मनुष्यता को बचाने की कोमल ज़िद से राजेश जोशी का काव्य-संसार बनता है। प्रस्तुत है उनकी दो चुनिंदा रचनाएं, शासक होने की इच्छा और पृथ्वी
शासक होने की इच्छा
वहाँ एक पेड़ था
उस पर कुछ परिंदे रहते थे
पेड़ उनकी आदत बन चुका था
फिर एक दिन जब परिंदे आसमान नापकर लौटे
तो पेड़ वहाँ नहीं था
फिर एक दिन परिंदों को एक दरवाजा दिखा
परिंदे उस दरवाजे से आने-जाने लगे
फिर एक दिन परिंदों को एक मेज दिखी
परिंदे उस मेज पर बैठकर सुस्ताने लगे
फिर परिंदों को एक दिन एक कुर्सी दिखी
परिंदे कुर्सी पर बैठे
तो उन्हें तरह-तरह के दिवास्वप्न दिखने लगे
और एक दिन उनमें
शासक बनने की इच्छा जगने लगी !
यह पृथ्वी सुबह के उजाले पर टिकी है
यह पृथ्वी सुबह के उजाले पर टिकी है
और रात के अंधेरे पर
यह चिड़ियों के चहचहाने की नोक पर टिकी है
और तारों की झिलमिल लोरी पर
तितलियाँ इसे छूकर घुमाती रहती हैं
एक चाक की तरह
बचपन से सुनता आया हूँ
उन किस्साबाजों की कहानियों को जो कहते थे
कि पृथ्वी एक कछुए की पीठ पर रखी है
कि बैलों के सींगों पर या शेषनाग के थूथन पर,
रखी है यह पृथ्वी
ऐसी तमाम कहानियाँ और गीत मुझे पसन्द हैं
जो पृथ्वी को प्यार करने से पैदा हुए हैं!
मैं एक आवारा की तरह घूमता रहा
लगातार चक्कर खाती इस पृथ्वी के
पहाड़ों, जंगलों और मैदानों में
मेरे भीतर और बाहर गुज़रता रहा
पृथ्वी का घूमना
मेरे चेहरे पर उकेरते हुए
उम्र की एक एक लकीर
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3 वर्ष पहले
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