बूढ़ा बरगद साक्षी है किस तरह से खो गई
रमसुधी की झोपड़ी सरपंच की चौपाल में
घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है
बताओ कैसे लिख दूँ धूप फागुन की नशीली
जो उलझ कर रह गई है फाइलों के जाल में
गाँव तक वो रोशनी आएगी कितने साल में
हमारे गाँव का 'गोबर' तुम्हारे लखनऊ में है
जवाबी ख़त में लिखना किस मोहल्ले का निवासी है
तुम्हारी फ़ाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है
मगर ये आंकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है
न महलों की बुलंदी से न लफ़्ज़ों के नगीने से
तमद्दुन में निखार आता है घीसू के पसीने से
कि अब मर्क़ज़ में रोटी है, मुहब्बत हाशिए पर है
उतर आई ग़ज़ल इस दौर में कोठी के ज़ीने से
दुष्यंत ने अपनी गजलों से शायरी की जिस नयी राजनीति की शुरुआत की थी, अदम ने उसे उस मुकाम तक पहुंचाने की कोशिश की है, जहां से एक-एक चीज बगैर किसी धुंधलके के पहचानी जा सके। यह अजीब इत्तफ़ाक भी है कि दोनों ने अपने-अपने जज़्बातों के इजहार के लिए ग़ज़ल का रास्ता चुना। मुशायरों में घुटनों तक मटमैली धोती, सिकुड़ा मटमैला कुरता और गले में सफेद गमछा डाले एक ठेठ देहाती इंसान, जिसकी ओर आपका शायद ध्यान ही न गया हो, यदि अचानक माइक पे आ जाए और फिर ऐसी रचनाएं पढ़े कि आपका ध्यान और कहीं जाए ही न, तो समझिए वो इंसान और कोई नहीं अदम गोंडवी है। अदम का असली नाम रामनाथ सिंह था। उनकी निपट गंवई अंदाज में महानगरीय चकाचौंध और चमकीली कविताई को हैरान कर देने वाली अदा सबसे जुदा और विलक्षण है।
वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित शायर मुनव्वर राना की किताब 'ढलान से उतरते हुए' में मुनव्वर लिखते हैं ''अदम जी ठाकुर थे, राजपूत ठाकुर। ज़मींदार भी थे, छोटे-मोठे ही सही लेकिन ज़ुल्म और नाइंसाफ़ियों के ख़िलाफ़ बग़ावती तेवर और क़ागज़ क़लम उठाने के लिए किसी जाति विशेष का होना ज़रूरी नहीं होता। यह फूल तो किसी भी बाग़ में, किसी भी गमले में और कभी-कभी तो कीचड़ में भी खिल जाता है। समाजी नाइंसाफ़ियों और नहमवारियों के ख़िलाफ़ उठी आवाज को ग़ज़ल बना देना सबके बस की बात नहीं होती, इसके लिए शताब्दियाँ किसी अच्छे कवि का इंतज़ार करती हैं।''
किसको उम्मीद थी जब रौशनी जवां होगी
कल के बदनाम अंधेरों पे मेहरबां होगी
खिले हैं फूल कटी छातियों की धरती पर
फिर मेरे गीत में मासूमियत कहां होगी
आप आएं तो कभी गांव की चौपालों में
मैं रहूं या न रहूं भूख मेजबां होगी
तालिबे-शोहरत हैं कैसे भी मिले मिलती रहे
आगे मुनव्वर लिखते हैं, ''अदम जी में जितनी छटपटाहट थी, जितनी आग थी, जितना जोश था, साहित्य पनाह न देता तो चम्बल को अपने दामन में पनाह देनी पड़ती। ये चम्बल जो डाकुओं के नाम से मंसूब है, मशहूर है और बदनाम है, हक़ीक़त में यह पनाहगाह थी समाज के उन बाग़ियों की, जिनकी आंख़ें ज़ुल्म और नाइंसाफ़ी की आग में झुलस गयीं थीं।''
आँख पर पट्टी रहे और अक़्ल पर ताला रहे
अपने शाहे-वक़्त का यूँ मर्तबा आला रहे
तालिबे-शोहरत हैं कैसे भी मिले मिलती रहे
आए दिन अख़बार में प्रतिभूति घोटाला रहे
एक जन सेवक को दुनिया में अदम क्या चाहिए
चार छह चमचे रहें माइक रहे माला रहे
अदम साहब की शायरी में जनता के सुख-दुःख बसते हैं। इसीलिए वे बग़ावती तेवर भी अपनाते हैं, शोषणकारियों के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद करते हैं। उनकी शायरी न तो हमें वाह करने के अवसर देती है और न आह भरने की मजबूरी परोसती है। अपनी शायरियों-ग़ज़लों में अपने इसी तेवर के लिए अदम मशहूर हुए। अदम जी ने एक बार शोहरत की दुनिया में रखा तो फिर पीछे की तरफ मुड़कर नहीं देखा। उनसे मोहब्बत करने वाले, उनको सुनने वाले और उन्हें पसंद करने वालों की गिनती के लिए छोटे-मोठे कैलकुलेटर सचमुच छोटे पड़ गए।
मुनव्वर लिखते हैं, ''हिन्दुस्तान के हर अच्छे कवि सम्मलेनों में अदम की मौजूदगी ज़रूरी हो गयी। उनके शेर सड़क से संसद तक गूंजने लगे। लेकिन एक बड़ा नुक़सान भी होने लगा। मंगलभवन के लॉन में ख़ालिस दूध की चाय पीने वाले अदम जी इलाहबाद कुम्भ मेले में भी शराब पीकर मिलने लगे। यक़ीनन उनके अंदर का शायर इतने दुःख देख चुका था जिससे भागने का सिर्फ़ एक ही रास्ता बचता था लेकिन इस रास्ते ने अदम जी से ज़्यादा हिंदी साहित्य को नुक़सान पहुंचाया। एक अलबेला कवि अपनी ज़मीन से सचमुच का जुड़ा हुआ एक क़ीमती कवि कच्ची-पक्की शराब के सैलाब में बहता चला गया। शराब की कश्ती पर सवार उसके तमाम साथी तो समतल ज़मीन देखकर कहीं न कहीं उतर गए लेकिन न तो अदम जी ने भंवर की तरफ़ जाती हुई इस कश्ती से उतरना चाहा और न वक़्त ने उन्हें कश्ती से उतरने का मौक़ा दिया। फिर आख़िरकार हुआ वही कि उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ सत्ता और सुख की चादर ताने सोती रही और उधर इंकलाबी कविता की एक मशाल पीजीआई अस्पताल में देख-रेख और दवा के बगैर बुझ गयी।''
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तालिबे-शोहरत हैं कैसे भी मिले मिलती रहे
2 वर्ष पहले
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