उर्दू शायरी ने वह दौर भी देखा है जब शायर इश्क़ की दुनियां में सपनों के राजकुमार की सी हैसियत रखते थे। नौजवान लड़कियां शायरों के चित्र अपने सिरहाने रखती थीं और दीवान अपने सीने से लगाए फिरती थीं। शायरी का यह दौर लाने वालों में सबसे पहला और प्रमुख नाम असरार-उल-हक़ मजाज़ का आता है।
मशहूर अफ़साना निगार इस्मत चुगताई ने अपनी आत्मकथा 'कागज़ है पैरहन' में लिखा है, "मजाज़ का काव्य संग्रह आहंग जब प्रकाशित हुआ तो गर्ल्स कॉलेज की लड़कियां इसे अपने सिरहाने तकिए में छिपा कर रखतीं और आपस में बैठकर पर्चियां निकालतीं कि हम में से किसको मजाज़ अपनी दुल्हन बनाएगा।" आख़िर मजाज़ की शायरी में ऐसा क्या था जिसने अपने दौर को इतना महत्वपूर्ण बनाया और अपनी शख़्सियत को और बुलंद बनाया। हालांकि मजाज़ जिस दौर में शायरी कर रहे थे वह तक़्क़ीपसंद शायरी का युग था और तमाम तरक़्क़ी पसंदों की तरह मजाज़ की शायरी में भी इश्क़ और क्रांति एक दूसरे में घुल मिल गए थे। लेकिन सिर्फ़ यही उनकी का रंग नहीं था। कुछ तो था जो मजाज़ का बिल्कुल अपना था और बहुत गहरे रूमान का था।
इधर दिल में इक शोर-ए-महशर बपा था
मगर उस तरफ़ रंग ही दूसरा था
हँसी और हँसी इस तरह खिलखिला कर
कि शम-ए-हया रह गई झिलमिला कर
नहीं जानती है मेरा नाम तक वो
मगर भेज देती है पैग़ाम तक वो
ये पैग़ाम आते ही रहते हैं अक्सर
कि किस रोज़ आओगे बीमार हो कर
यह नज़्म मजाज़ ने अस्पताल की एक नर्स को नज़र करके लिखी थी। जब एक अनाम सी नर्स के प्रति ऐसा रूमानी ख़्याल रहा हो तो मजाज़ के रोमेंटिसिज़्म का अंदाज़ा आसानी से लगाया जा सकता है।
छलके तेरी आँखों से शराब और ज़ियादा
जोश मलीहाबादी और मजाज़ लखनवी (मजाज़ खड़े हैं बाएं से दूसरे, और जोश बीच में बैठे हैं)
छलके तेरी आँखों से शराब और ज़ियादा
महकें तेरे आरिज़ के गुलाब और ज़ियादा
अल्लाह करे ज़ोर-ए-शबाब और ज़ियादा
जी हां आपने ठीक पहचाना, यह नग़मा थोड़े अलग तरीके से आरज़ू फ़िल्म में सुनाई देता है। हसरत जयपुरी के नाम से लेकिन इस नग़मे का उन्स मजाज़ की शायरी में ही है। अपने मिज़ाज का पता तो मजाज़ ने अपनी शुरुआती रचनाओं में ही दे दिया था तआरुफ़ नाम से। उनकी एक शुरुआती ग़ज़ज है जिसमें वे अपना परिचय देते हुए कहते हैं -
ख़ूब पहचान लो असरार हूँ मैं
जिंस-ए-उल्फ़त का तलबगार हूँ मैं
इश्क़ ही इश्क़ है दुनिया मेरी
फ़ित्ना-ए-अक़्ल से बेज़ार हूँ मैं
ज़िंदगी क्या है गुनाह-ए-आदम
ज़िंदगी है तो गुनहगार हूँ मैं
अपने तआरुफ़ का ये तेवर मजाज़ के आख़िर तक बरकरार रहा। वक़्त ने आवाज़ में थोड़ी शिकस्त भले पैदा की हो लेकिन अंदाज़ तो वही था।
मैं हूँ मजाज़ आज भी ज़मज़मा-संजो-नग्मा-ख्वां
शायरे-महफ़िले-वफ़ा, मुर्ताखे-बज़्मे-दिलवराँ
आज भी ख़ारज़ारे-ग़म खुल्दे-बरीं मेरे लिए
आज भी रहगुज़ारे-इश्क़ मेरे लिए है कहकशाँ
आज भी है लिखी हुई सुर्ख हरुफ़ में मजाज़
दफ़्तर-ए-शहरयार में एक मेरे जुनूँ की दासताँ
मजाज़ का यह तेवर मजाज़ की ज़िंदगी का हासिल था। साफ लफ़्ज़ों में कहें तो मजाज़ ने अपनी शायरी की ऊंचाई अपनी ज़िंदगी की शर्त पर ही हासिल की। एक बेचैनी, कश्मकश, एक जद्दोजहद और एक निरंतर भटकती हुई बेचैन रूह का नाम शायर मजाज़ है।
शहर की रात और मैं नाशाद ओ नाकारा फिरूँ
जगमगाती जागती सड़कों पे आवारा फिरूँ
ग़ैर की बस्ती है कब तक दर-ब-दर मारा फिरूँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ
मजाज़ की जिस तरक़्क़ी पसंदगी का ज़िक्र ऊपर किया गया है वह उनकी इस मशहूर नज़्म आवारा में अपने पूरे शबाब पर दिखता है, नहीं तो सिर्फ़ एक रोमेंटिक शायर भला क्या चाँद को इस तरह से भी देख सकता है।
इक महल की आड़ से निकला वो पीला माहताब
जैसे मुल्ला का अमामा जैसे बनिए की किताब
जैसे मुफ़्लिस की जवानी जैसे बेवा का शबाब
तू इस आँचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था
उनके प्रगतिशील तेवर तो आज भी कई मौक़ों पक अक्सर सुनाई दे जाते हैं। कुछ शेर तो नारों की शक्ल ले चुके हैं। महिलाओं को आंदोलित करने के लिए अब भी इसेस मौजूं शेर हो -
तेरे माथे पे ये आँचल बहुत ही खूब है लेकिन
तू इस आँचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था
मजाज़ ने एक जिम्मेवार शायर की तरह अपने ज़माने की हर ख़ूबसूरत चीज़ पर ग़ज़ल कहने की कोशिश की। हर ज़ोर ज़ुल्म और संघर्ष के ख़िलाफ़ तराने लिखे इंसान की हर हासिल का उल्लास मनाया और इंसानियत के हार जाने का ग़म भी उसी शिद्दत से व्यक्त किया। उन्होंने रेल पर नज़्म कही, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के लिए तराना लिखा जो आज भी इस विश्वविद्यालय का तराना है। उन्होंने टैगोर के काव्य का अपने अंदाज़ में भावानुवाद किया तो गांधीजी की हत्या पर सानेहा (शोकगीत) भी लिखा। इस शोकगीत में भी मजाज़ ने अपना जुनूनी तेवर बरकरार रखा -
हिंदू चला गया न मुसलमाँ चला गया
इंसाँ की जुस्तुजू में इक इंसाँ चला गया
ख़ुश है बदी जो दाम ये नेकी पे डाल के
रख देंगे हम बदी का कलेजा निकाल के
लेकिन जो जिम्मेवारी और तेवर मजाज़ ने अपनी शायरी में निभाए उसे अपनी ज़िंदगी में नहीं निभा सके। उन्होंने बहुत कम ज़िंदगी पाई और महज़ 44 साल की उम्र में इस फानी दुनिया को अलविदा कर दिया। अलविदा कहने का तरीका भी कितना दर्दनाक और हौलनाक था कि डॉक्टरों ने शराब पीने से मना कर रखा था, लेकिन दोस्तों के इसरार के आगे डॉक्टरों की सलाह कहां काम आती। दोस्तों के साथ लखनऊ के किसी ताड़ीखाने की छत पर रात बिताई। दोस्त तो पीकर चले गए मजाज़ वहीं नशे में बेसुध पड़े रहे। सुबह दुनिया तो उठी लेकिन मजाज़ नहीं उठ सके। मजाज़ शायद इसे जानते भी थे तभी तो उन्होंने पहले ही कह रखा था -
दिल को महव-ए-ग़म-ए-दिलदार किए बैठे हैं
रिंद बनते हैं मगर ज़हर पिए बैठे हैं
चाहते हैं कि हर इक ज़र्रा शगूफ़ा बन जाए
और ख़ुद दिल ही में इक ख़ार लिए बैठे हैं
(लेखक - राकेश मिश्रा पेशे से प्रोफेसर हैं और हिंदी कहानियों के चर्चित नाम हैं)
अमर उजाला एप इंस्टॉल कर रजिस्टर करें और 100 कॉइन्स पाएं
केवल नए रजिस्ट्रेशन पर
बेहतर अनुभव के लिए
4.3
ब्राउज़र में ही
अब मिलेगी लेटेस्ट, ट्रेंडिंग और ब्रेकिंग न्यूज आपके व्हाट्सएप पर
Disclaimer
हम डाटा संग्रह टूल्स, जैसे की कुकीज के माध्यम से आपकी जानकारी एकत्र करते हैं ताकि आपको बेहतर और व्यक्तिगत अनुभव प्रदान कर सकें और लक्षित विज्ञापन पेश कर सकें। अगर आप साइन-अप करते हैं, तो हम आपका ईमेल पता, फोन नंबर और अन्य विवरण पूरी तरह सुरक्षित तरीके से स्टोर करते हैं। आप कुकीज नीति पृष्ठ से अपनी कुकीज हटा सकते है और रजिस्टर्ड यूजर अपने प्रोफाइल पेज से अपना व्यक्तिगत डाटा हटा या एक्सपोर्ट कर सकते हैं। हमारी Cookies Policy, Privacy Policy और Terms & Conditions के बारे में पढ़ें और अपनी सहमति देने के लिए Agree पर क्लिक करें।
कमेंट
कमेंट X