खुद की तलाश में,
अक्सर खुद से,
बहुत दूर निकल जाता हूँ
पता नहीं मिलता अपना,
लौट आता हूँ।
मुझको पहचानने के,
दर्जनों तरीके खोजे मैंने,
स्पर्श भी किया,
पर मैं,
मुझे मिल नहीं पाता हूँ।
असंख्य
अभीप्साऐं
पूरी की होंगी मैंने,
कभी मन के लिए
कभी तन के लिए
कभी अपनों के वास्ते
कभी परायों के लिए
किंतु,
अपने आप से,
परिचय न कर सका,
मैं अपना।
मुझे पुकारती रही
देह मेरी,
मुझे बुलाती रही
आवाजें मेरी,
मुझसे विस्मृत
न हो सका कोई,
भुला न सका मैं,
अपरिचित को भी,
न सखा को खोया
न बैरी को नकारा
किंतु मेरा संबन्ध
बन नहीं सका
अपने आप से।
अपनी खोज,
अपनी जिज्ञासा,
अपनी परीक्षा,
क्रमशः चलती रही,
तृषित मन के भीतर।
देश काल परिस्थिति,
सभी से अभ्यस्त हूँ
जीत हार जीवन मरण
सभी से संतुष्ट हूँ
हरेक रिश्ते से प्रेम है
किंतु खुद से तटस्थ हूँ,
बाहर,
सरल हूँ समाधान हूँ
भीतर,
अबूझ आकुल व्यवधान हूँ।
-श्रीधर
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2 वर्ष पहले
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