इक रास्ता है ज़िन्दगी जो थम गए तो कुछ नहीं
ये क़दम किसी मुक़ाम पे जो थम गए तो कुछ नहीं
इक रास्ता है ज़िन्दगी ...
फिल्म 'काला पत्थर' के इस गीत के गीतकार साहिर लुधियानवी हैं और संगीतकार राजेश रोशन। फिल्माया गया है अपने जमाने के मशहूर, अलमस्त और अलबेले कलाकार शशि कपूर पर।
स्वरों की मल्लिका लता मंगेशकर के सधे हुए कंठ और किशोर कुमार की खनकती आवाज में फूटते गीत के बोल, तिस पर शशि कपूर का मस्ताना अंदाज, आत्मविश्वास से भरी हुई देह भाषा, खेत-खलियान, ताल-तलैया, बाग-बगीचे, पेड़ों-झुरमुटों के बीच से उस बाइक सवार को अपनी मंजिल की ओर गाते-गुनगुनाते, आगे बढ़ते हुए देखना, उत्साह से भर देता है। असल में यह गीत अपने आप में सिर्फ गीत ही नहीं मुकम्मल दर्शन है, जीवन का दर्शन।
किसी गीत को सुर-लय-ताल के साथ अगर शशि जी जैसे अदाकार के नाजो अंदाज मिल जाएं तो श्रोता/दर्शक गीत के साथ यात्रा करने लगते हैं। फिल्म 'काला पत्थर' का यह गीत एक थके-हारे, सफलताओं-असफलताओं के भंवर में अटके व्यथित मन, जीवन की चुनौतियों से पस्त हो चुके इंसान के मन में नई उर्जा का संचार करता है। हौसला देता है, हिम्मत बढ़ाता है कि 'उठो ! और जीवन पथ पर आगे बढ़ते जाओ' आप फिर से तरोताजा हो जाते हैं।
कहते हैं संगीत में बड़ी ताकत होती है, और हर तरह का गीत आपको कोई न कोई यात्रा जरूर करवा देता है। आप स्वयं को उस गीत में कहीं न कहीं तलाशने तगते हैं। शशि जी का हंसता-मुस्कुराता चेहरा, मस्ताना अंदाज, खूबसूरत अदायगी से सजा यह गीत आपको दुनियादारी के झंझावातों से दूर हटाकर एक नए रास्ते की ओर ले जाता है। फिर आपके मन कहीं अवसाद के लिए जगह ही नहीं बचती।
ओ जाते राही ओ बाँके राही
मेरी बाँहों को इन राहों को
तू छोड़ के ना जा तू वापस आ जा
वो हुस्न के जलवे हों या इश्क़ की आवाज़ें
आज़ाद परिन्दों की रुकती नहीं परवाज़ें
जाते हुए क़दमों से आते हुए क़दमों से
भरी रहेगी रहगुज़र जो हम गए तो कुछ नहीं
इक रास्ता है ज़िन्दगी…
रुको मत आगे बढ़ो !
कथानक में एक बांका नवजवान (शशि कपूर) समय के कैनवास पर दुनियादारी की ओर अग्रसर, जीवन संगीत के तराने को गुनगुनाते हुए आगे बढ़ता है। और जैसा कि होता है- आपके आस-पास की हर चीजें आपसे किसी न किसी रूप में जुड़ी होती हैं और आप उनके मोहपाश में जकड़े हुए होते हैं।
ऐसा गज़ब नहीं ढाना पिया मत जाना बिदेसवा रे
कई बार जब अवसर आपके दरवाजे को खटखटाता है, और आप उस मोहपाश की जकड़न से अपने आपको मुक्त नहीं कर पाते तो जीवन में पीछे रह जाते हैं। ऐसे समय में ही यह गीत आपको बताता है कि 'वो हुस्न के जलवे हों या इश्क़ की आवाज़ें/आज़ाद परिन्दों की रुकती नहीं परवाज़ें'।
रुको मत आगे बढ़ो ! क्योंकि आगे बढ़ाने वाले अवसरों की पदचाप जीवन में फैले सन्नाटे को चीरती जरूर है लेकिन इतना शोर नहीं मचाती कि कान के पर्दे हिल जाएं, वो चुपके से कुछ कहती है, इसलिए उसे ध्यान से सुनकर आगे बढ़ना होगा। और तब, जब प्रगति के मार्ग अग्रसर होंगे, जिंदगी सचमुच रास्ते में तब्दील होती चली जाएगी।
ऐसा गज़ब नहीं ढाना पिया मत जाना बिदेसवा रे
ऐसा गज़ब नहीं …
ओ हमका भी संग लिए जाना पिया जब जाना बिदेसवा रे– 2
हो जाते हुए राही के साये से सिमटना क्या
इक पल के मुसाफ़िर के दामन से लिपटना क्या
जाते हुए क़दमों से आते हुए क़दमों से
भरी रहेगी रहगुज़र जो हम गए तो कुछ नहीं
इक रास्ता है ज़िन्दगी …
जीवन को सचमुच रास्ते की तरह ही जिया
असल में इस गीत के जिक्र का मूल मकसद शशि जी को याद करना है, उनका जीवन, उनकी अदायगी, पर्दे पर उनका चरित्र, जीवन जीने का एक नया ढंग सिखाता है। जब-जब ऐसे गीत बजते हैं, शशि कपूर की याद ताजा हो जाती है। उन्होंने जीवन को सचमुच रास्ते की तरह ही जिया।
1965 में सूरज प्रकाश के निर्देशन में बनी फिल्म 'जब-जब फूल खिले' से शशि कपूर साहब ने एक बार जो सफलता की सीढ़ियों पर कदम रखा तो फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। 'फिल्मफेयर' से लेकर 'पद्मभूषण' और 'दादा साहब फाल्के' जैसे प्रतिष्ठित पुरस्कारों से उन्हें नवाजा जा चुका है। सत्तर के दशक में शशि कपूर लगभग 150 फिल्मों के अनुबंध थे।
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शशि की अदायगी
7 महीने पहले
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