अटल जी कहते थे- साहित्यकार को अपने प्रति सच्चा होना चाहिए, उसे समाज के लिए अपने
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अटल जी कहते थे- साहित्यकार को अपने प्रति सच्चा होना चाहिए, उसे समाज के लिए अपने दायित्व का सही अर्थों में निर्वाह करना चाहिए, वह समसामयिकता को साथ लेकर चले, पर आने वाले कल की चिंता ज़रूर करे। अटलजी भारत को विश्वशक्ति के रूप में देखना चाहते थे, वे कहते हैं- मैं चाहता हूँ भारत एक महान शक्ति बने, शक्तिशाली बने, संसार के राष्ट्रों में प्रथम पंक्ति में आये, उन्हीं के शब्दों में-
स्वप्न देखा था कभी जो आज हर धड़कन में है
एक नया भारत बनाने का इरादा मन में है
एक नया भारत कि जिसमें एक नया विश्वास हो, एक नया उल्लास हो
हो जहाँ सम्मान हर एक जाति, हर एक धर्म का
सब समर्पित हों जिसे, वह लक्ष्य जिसके पास हो
एक नया अभिमान अपने देश में जन-जन में है
एक नया भारत बनाने का इरादा मन में है
भूख जो जड़ से मिटा दे, वह उगाना है हमें
प्यास ना बाकी रहे, वह जल बनाना है हमें
जो प्रगति से जोड़ दे, ऐसी सड़क चाहिए
देश सारा गा सके वह गीत गाना है हमें
एक नया संगीत देखो आज कण कण में है
एक नया भारत बनाने का इरादा मन में है
वाणी प्रकाशन से प्रकाशित डाॅ सौरभ मालवीय की पुस्तक राष्ट्रवादी पत्रकारिता के शिखर पुरुष, अटल विहारी वाजपेयी- में एक जगह अटल जी ने कहा- मेरे पिता पंडित कृष्ण बिहारी वाजपेयी ग्वालियर रियासत के प्रसिद्ध कवि थे, वे ब्रज और खड़ी बोली में काव्य लेखन करते थे, उनकी कविता- 'ईश्वर प्रार्थना' विद्यालयों में प्रात:सामूहिक रूप से गायी जाती थी। पिता जी की देखा देखी मैं भी तुकबंदी करने लगा फिर कवि सम्मेलनों में जाने लगा। लोगों द्वारा प्रशंसा मिली, प्रशंसा ने उत्साह बढ़ाया।
बात 1942 की है लखनऊ के कालीचरण काॅलेज में अटल जी को परमपूज्य गुरुजी के समक्ष कविता सुनाने का सुअवसर मिला, उन्होंने जो कविता पढ़ी, उसे बहुत पसंद किया गया, वह कविता थी-
मैं शंकर का वह क्रोधानल कर सकता जगती क्षार-क्षार
डमरू की वह प्रलय ध्वनि हूँ जिसमें नाचता भीषण संहार
रणचंडी की अतृप्त प्यास मैं दुर्गा का उन्मत्त हास
मैं यम की प्रलयंकर पुकार जलते मरघट का धुँआधार
फिर अंतरतम की ज्वाला से जगती में आग लगा दूँ मैं
यदि धधक उठे जल थल अम्बर जड़ चेतन तो कैसा विस्मय
हिन्दू तन मन, हिन्दू जीवन, रग रग मेरा हिन्दू परिचय
वे कहते हैं सच्चाई यह है- कविता और राजनीति साथ-साथ नहीं चल सकते। ऐसी राजनीति जिसमें प्रतिदिन भाषण देना ज़रूरी है और भाषण भी ऐसा जो श्रोताओं को प्रभावित कर सके, तो फिर कविता की एकांत साधना के लिए समय और वातावरण कहाँ मिल पाता है। मैंने जो थोड़ी सी कविताएं लिखी हैं वे परिस्थिति सापेक्ष हैं और आसपास की दुनिया को प्रतिबिम्बित करती हैं।
एक जगह वे जब कविता पाठ करते हैं तो कहते हैं- मैं समझाने के लिए कहना चाहूँगा कि मान लीजिए- 1977 में एक राजनीतिक प्रयोग हुआ, जनता पार्टी टूट गई। हमारा दिल टूट गया। तब कवि की प्रतिक्रिया है। सचमुच में जनता पार्टी को लेकर तो नहीं मगर परिस्थिति को लेकर ज़रूर है-
बेनक़ाब चेहरे हैं
दाग़ बड़े गहरे हैं
टूटता तिलस्म, आज सच से भय खाता हूँ
गीत नहीं गाता हूँ
लगी कुछ ऐसी नज़र
बिखरा शीशे-सा शहर
अपनों के मेले में मीत नहीं पाता हूँ
गीत नहीं गाता हूँ
पीठ मे छुरी-सा चाँद
राहु गया रेखा फाँद
मुक्ति के क्षणों में बार-बार बँध जाता हूँ
गीत नहीं गाता हूँ
फिर परिस्थिति बदली तो मन:स्थिति भी बदली। आपको समझाने के लिए कह दूँ - मान लीजिए भारतीय जनता पार्टी बन गयी, जनता पार्टी टूटने के बाद भारतीय जनता पार्टी बन गई तो कवि ने लिखा-
गीत नया गाता हूँ
टूटे हुए तारों से फूटे वासंती स्वर
पत्थर की छाती में उग आया नव अंकुर
झरे सब पीले पात, कोयल की कुहुक रात
प्राची में अरुणिमा की रेख देख पाता हूँ
गीत नया गाता हूँ
टूटे हुए सपनों की कौन सुने सिसकी
अंतर की चीर व्यथा पलकों पर ठिठकी
हार नहीं मानूँगा, रार नहीं ठानूँगा
काल के कपाल पे लिखता मिटाता हूँ
गीत नया गाता हूँ
अब इसकी तीसरी कड़ी है। मैंने कश्मीर में लिखी 2 साल पहले यानि 89 में लिखी होगी क्योंकि जो भाषण मैं कोट रहा हूँ वह डाॅ सौरभ मालवीय की किताब में है । पुस्तक के अनुसार महाराष्ट्र के नासिक में 17 मार्च 1991 को चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को आयोजित सार्वजनिक वाचनालय के स्वर्ण जयंती महोत्सव को संबोधित करते हुए ये कविताएं पढ़ीं थी। कहते हैं तब पता नहीं था कश्मीर का नंदनवन इस तरह से जल जाएगा लेकिन शायद इसमें उसकी छाया है-
सवेरा है मगर पूरब दिशा में घिर रहे बादल
रूई से धुँधलके में मील के पत्थर पड़े घायल
ठिठके पाँव
ओझल गाँव
जड़ता है न गतिमयता
स्वयं को दूसरों की दृष्टि से मैं देख पाता हूँ
न मैं चुप हूँ न गाता हूँ
कश्मीर की घाटी में चिनार का पेड़ होता है और चीड़ का भी पेड़ होता है। जब बर्फ गिरती है तो चिनार में जैसे आग लग जाती है। चिनार झुलस जाता है मगर चीड़ का पेड़ खड़ा रहता है। इसको अटल जी ने कविता में चित्रित किया है-
समय की सर्द साँसों ने चिनारों को झुलस डाला
मगर हिमपात को देती चुनौती एक द्रुममाला
बिखरे नीड़
विहँसी चीड़
आँसू हैं न मुस्कानें
हिमानी झील के तट पर अकेला गुनगुनाता हूँ
न मैं चुप हूँ न गाता हूँ
25 दिसंबर 1994 को अपने जन्मदिन के अवसर एक कविता लिखी जो उनके पैत्रिक गाँव बटेश्वर से संबंधित है-
आओ मन की गाँठें खोलें
यमुना तट, टीले रेतीले,
घास-फूस का घर डंडे पर,
गोबर से लीपे आँगन में,
तुलसी का बिरवा, घंटी स्वर,
माँ के मुंह में रामायण के दोहे चौपाई रस घोलें,
आओ मन की गांठें खोलें।
बाबा की बैठक में बिछी
चटाई बाहर रखे खड़ाऊं,
मिलने वालों के मन में
असमंजस, जाऊँ या न जाऊँ?
माथे तिलक, आँख पर अनेक, पोथी खुली स्वयं से बोलें,
आओ मन की गांठें खोलें।
सरस्वती की देख साधना,
लक्ष्मी ने संबंध न जोड़ा,
मिट्टी ने माथे के चंदन,
बनने का संकल्प न छोड़ा,
नये वर्ष की अगवानी में, टुक रुक लें, कुछ ताजा हो लें,
आओ मन की गांठें खोलें।
उर्दू और फ़ारसी के महान शायर मिर्ज़ा ग़ालिब पर 13 दिसंबर 1998 को आयोजित समारोह में अटल जी ने उर्दू के महत्व पर प्रकाश डाला, अपने संबोधन में उन्होंने कहा- मैं उर्दूदां नहीं हूँ लेकिन मैंने मिर्ज़ा साहब को पढ़ा है वे विश्व के महाकवियों में से एक हैं। उर्दू और फ़ारसी में जो कुछ उन्होंने लिखा वह विश्व साहित्य की धरोहर है।
ख़ुद अपने बारे में ग़ालिब लिखते हैं-
होगा कोई ऐसा भी कि ग़ालिब को न जाने
शायर तो बहुत अच्छा है, मगर बदनाम बहुत है
किस बाँकपन से अपने को बदनाम करनेवालों को निरुत्तर करते हुए उन्होंने अच्छे शायर के रूप में सर्वविदित होने का दावा किया। ग़ालिब मुख्यत:इंसानी रिश्तों के कवि थे। अपने जीवन की सार्थकता और विफलता दोनों के लिए ही वे इश्क़ को ज़िम्मेदार मानते थे। उनका शेर है-
इश्क से तबीयत से जिस्त मज़ा पाया
दर्द की दवा पायी और दर्द बेदवा पाया
उन्हें जीवन का आनंद प्रेम से ही मिला था, जो एक ही साथ उनके सभी दर्दों की दवा भी थी और ऐसा दर्द भी था जिसकी कोई दवा नहीं। कोई पूछ सकता है अगर यह दर्द बेदवा है, तो फिर इसे पालने की ज़रूरत क्या है ? ग़ालिब का मासूम उत्तर है
इश्क़ पर ज़ोर नहीं, ये वो आतिश है ग़ालिब
कि लगाये न लगे, बुझाए न बुझे
लेकिन आगे ये भी कहा
इश्क़ ने ग़ालिब निकम्मा कर दिया
वरना हम भी आदमी थे काम के
अटल जी राजनीति में रहते हुए भी साहित्य से जुड़े रहे। उनका मानना था कि राजनीति और साहित्य दोनों ही जीवन के अंग हैं। अटलजी ने कई पुस्तकें लिखीं- जिनमें अमर बलिदान,अमर आग है, बिंदु बिंदु विचार, सेक्युलरवाद, कैदी कविराय की कुंडलियां, मृत्यु या हत्या, जनसंघ और मुसलमान, मेरी इक्यावन कविताएं, न दैन्यं न पलायनम, मेरी संसदीय यात्रा (चार खण्ड), संकल्प काल और गठबंधन की राजनीति समि्मलित है। इनके अलावा कई और पुस्तकें हैं।
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