शिव बटालवी अगर आज होते तो 88 बरस के होते। महफ़िल में शिरकत कम हो गई होतीं लेकिन उनके ड्रॉइंग रूम में लोगों का तांता लगा रहता। वे ज़िद करते कि एक बार ‘इक कुड़ी’ सुना दीजिए और शिव अपनी बुज़ुर्ग और थोड़ी कांपती आवाज़ में अपनी पुराने समय को याद कर गीत गुनगुनाते। लेकिन शिव की इच्छा पूरी हो गई थी, जवानी में मर जाने की इच्छा इसलिए इस दुनिया ना जाने कितने प्रेम और बिरह के गीतों से वंचित हो गई। लेकिन 36 की उम्र तक भी शिव ने जितना लिखा, बिरह के रास्ते पर चल रहे लोग उससे दिल को समझा सकते हैं कि वे अकेले नहीं हुआ, पिछले ज़माने में कोई शिव भी था।
मैंने शिव को जितना जाना, यही समझा कि दुनिया और प्रेमियों में बहुत भेद होता है, कई मीलों की दूरी। बतौर कवि लोग शिव से कुछ और चाहते थे, बड़ा मशहूर क़िस्सा है कि पाश ने कॉलर पकड़ के शिव के गीतों की आलोचना की थी, शिव ठहरे प्रेमी-संवेदनशील। वे तो रो दिए। वे अपने ज़हन को जीने वाले और उसी को लिखने वाले उन कवियों में से एक थे जिन पर दुनिया की राजनीति हावी ना थी। वे एक लड़की की मुहब्बत में खोए उस तारे की तरह थे जो उगता तो सुबह है लेकिन चांद की प्रतीक्षा में रहता है।
कहते हैं आंखें मन के भेद खोलती हैं। अगर ऐसा है तो आवाज़ उन भेदों की परत को और भी भेदती है। शिव के पास बहुत ही मीठी आवाज़ थी लेकिन उसका दर्द दिल में ठीक वैसे ही चुभता था जैसे किसी मंदिर में परिक्रमा लगाते हुए कोई कांटा त्वचा को भेद जाए। शिव के पास नशा था, मोहब्बत का लेकिन शराब की भी। वे मोहब्बत पीकर बैठे थे और शराब ने उन्हें खा लिया। उनकी तस्वीरों में शुरुआती दिनों में उनकी देह जितनी भरी लगती है, समय के साथ वे दुबले होते गए, गाल इस तरह धंस गए जैसे शिव के जीवन में मिले दर्द की गवाही दे रहे हों, उसमें उतने ही दुखी हों। मन का दुख देह पर देर-सवेर दिखने ही लगता है।
साहिर ने मजाज़ की शराब छुड़वाने के लिए उनकी बोलतें अलमारी में बंद कर दी थीं और दोस्तों को हिदायत दी कि कोई मजाज़ को शराब न दे लेकिन दुख ये है कि शिव के जीवन से वे दोस्त कहां गए या कभी थे ही नहीं। आशिक़ मिजाज़ आदमी क्या तबियत का ज़िद्दी भी था? कहते हैं कि उसके समकालीनों ने ईर्ष्या के चलते रेडियो से उनकी रिकॉर्डिंग हटवा दीं थी, चूंकि शिव कम उम्र में ही तेज़ी से मशहूर हो रहे थे, महफ़िलें उनका इंतज़ार करतीं। वे सबसे कम उम्र में साहित्य अकादमी पाने वाले रचनाकार भी हैं - उनकी कृति लूणा के लिए। लूणा का मंचन पंजाब से लेकर दिल्ली तक आज भी होता है।
शिव बहुत कम उम्र में चले गए, 36 बरस में मात्र। कुछ फूल कभी मुरझाते नहीं है, वे या तो मूरत के श्रंगार के लिए होते हैं या किसी की महबूबा के हाथों के लिए। लेकिन वे ख़त्म नहीं होते, किताबों में दबे गुलाब की तरह स्मृतियों की किसी खोह में छिपे रहते हैं, किताब खोलते ही अक्स उभरने लगते हैं उनके। शिव वही फूल हैं, अपने शब्दों की खुश्बू बिखरते। जवान दिलों की आवाज़ जिसमें इश्क़ का झरना अपनी आवाज़ से हलचल पैदा करता है, वो पत्र जो अलमारी में छिपा रहता है लेकिन जिसके अक्षर ह्रदय की सबसे गहरी आवाज़ की तस्दीक करते हैं, शिव वो गूंज हैं जो अकेली यात्रा में अपने आप से मिलने को मजबूर करती है, वे यात्रा जिसमें मंज़िल नहीं है, है तो रास्ते। फिर कहो कि प्रेम की भी मंज़िल कहां होती है - रास्ते ही हैं जो हैं।
एक वर्ष पहले
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