किसी भी नए काम के शुरुआत के लिए अमृत काल सबसे सही समय माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि अमृत काल वही समय है जब बड़ी से बड़ी उपलब्धि को भी हासिल किया जा सकता है । आज हम आज़ादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं। क्या हमने हिंदी के क्षेत्र में भी इतना कुछ प्राप्त कर लिया है कि हम महोत्सव मना सकें ? क्या हम उस अमृत काल में पहुँच गए हैं जहां से हिन्दी उत्थान के लिए उठाए जा रहे प्रत्येक कदम आवश्यक रूप से शुभ और सफल ही होंगे ?
आज़ादी पूर्व: हिंदी का राष्ट्रीय आन्दोलन में योगदान
आज़ादी के आंदोलन में सभी भारतीयों को एक सूत्र में बाँधने वाली तमाम कारकों में हिंदुस्तानी भाषा एक प्रमुख कारक थी । तमाम अहिंदी क्षेत्र के जन नायकों ने हिंदी को राष्ट्रीय एकता के लिए ज़रूरी बताया । महात्मा गांधी , लोकमान्य तिलक , राजागोपाल चारी , काका कालेलकर , केशव चंद्र सेन आदि प्रमुख नाम है । काका कालेलकर के शब्दों में , ‘यदि भारत में प्रजा का राज चलाना है , तो वहाँ की जनता की भाषा में चलाना होगा ।’ लेकिन आज़ादी के बाद की जनता की भाषा की स्थिति किसी से छुपी नहीं है।
आज़ादी के बाद हिन्दी
अपने ही घर में दोयम दर्ज़े के नागरिक के तौर पर रहने के लिए अभिशप्त हिन्दी की संवैधानिक स्थिति ऐसी नहीं है। भारत के संविधान निर्माताओं ने इसे राजभाषा का पद दिया है ( अनुच्छेद 343 (1) )। इसका अर्थ है है कि केंद्र अपने सारे कार्यकाज और राज्यों से शासकीय संचार हिन्दी भाषा में ही करेगा। साथ में एक शर्त थी कि अंग्रेजी का प्रयोग आगे के 15 वर्षों तक बना रहेगा। अंग्रेजी के प्रयोग को कम करने और उसी के समान्तर हिन्दी का प्रसार हो ; इसके लिए भारत के संविधान भाग 17 के अध्याय 4 के अनुच्छेद 351 में हिंदी भाषा के विकास के लिए दिया गया विशेष निर्देश इस प्रकार है :- "संघ का यह कर्तव्य होगा कि वह हिंदी भाषा का प्रसार बढ़ाए, उसका विकास करे ताकि वह भारत की सामासिक संस्कृति के सभी तत्वों के का माध्यम बन सकें तथा उसकी प्रकृति में हस्तक्षेप किए बिना हिंदुस्तानी के और आठवी अनुसूची में विनिर्दिष्ट भारत की अन्य भारतीय भाषाओं के प्रयुक्त रूप, शैली और पदों को आत्मसात् करते हुए तथा जहाँ आवश्यक या वाँछनीय हो वहाँ उसके शब्द-भंडार के लिए मुख्यत: संस्कृत से तथा गौणत: अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करते हुए उसकी करे। "
अंग्रेजी हुकूमत के ख़ात्मे के बाद भी नौकरशाही और शासन अभिजात्य और आधिपत्यवाद के संस्कारों से मुक्त नहीं हुआ। अंग्रेजी के प्रयोग को कम करने की ज़िम्मेदारी जिन नौकरशाहों को दी गयी , वो कर्तव्यच्युत रहे। इन पंद्रह सालों में हिन्दी के प्रयोग में कुछ ख़ास वृद्धि नहीं हुई। अंग्रेज़ी एक भाषा की जगह श्रेष्ठता की पहचान बनायी गयी। सदियों की गुलामी ने हमारे मेधा शक्ति को ऐसा आच्छादित किया कि हमने अंग्रेजी को मालिक और अपनी हिन्दी को नौकर समझ लिया। इसका परिणाम ये हुआ कि जब अंग्रेजी को पूरी तरीके से अपदस्थ करने का समय आया तो उपनिवेशवादी अंग्रेजी तंत्र ने संकीर्ण क्षेत्रीय शक्तियों से हाथ मिलाकर हिन्दी के खिलाफ एक ऐसा माहौल बनाया कि संसद को राजभाषा अधिनियम 1963 पास करना पड़ा जिसमें प्रावधान था कि अंग्रेजी का प्रयोग तब तक बना रहेगा जब तक संसद कोई और कानून नहीं बना देती ! अब हिन्दी विरोधियों को संसद के इस कानून का सहारा मिल गया जिसे प्रयोग करके हिन्दी के विरुद्ध और माहौल बनाया जाने लगा। राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में जिन राज्यों यथा तमिलनाडु , आंध्र प्रदेश , बंगाल , महाराष्ट्र आदि से हिन्दी को सबसे ज़्यादा समर्थन दिया और इसे देश को जोड़ने वाली भाषा कहा , उन्हीं राज्यों में हिन्दी के बहिष्कार के लिए आंदोलन होने लगा। इसका कारण राजनीतिक था।
राजभाषा विभाग, गृह मंत्रालय ने देश को तीन समूहों में वर्गीकृत किया है : क ,ख और ग क्षेत्र। ये राज्य समूह हिन्दी के प्रयोग की मात्रा के आधार तय किये गए हैं। क राज्यों के सरकारी कार्यालयों और मंत्रालयों में अधिकतर कार्य हिन्दी में किये जाते हैं। ख और ग क्षेत्रों में प्रयोग क्रमशः कम से कमतर है। सबसे बड़ी चुनौती ग समूह के क्षेत्रों में है जहाँ हिन्दी का प्रयोग न्यूनतम है। इस श्रेणी में तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश (तेलंगाना समेत)। इन राज्यों के नेताओं का आरोप है कि हिन्दी हमारी मातृ भाषाओं को ख़त्म कर सकती है। यह अपने मूल में साम्राज्यवादी है।
हिन्दी कोई बाहरी भाषा नहीं कि उसे अपने ही देश में उपनिवेश स्थापित करना पड़े। यह तो देश के बहुलांश द्वारा बोले जाने वाली भाषा है। हिन्दी का अन्य बोलियों से बहनों का है , माँ और बेटी का नहीं ; और सभी बहनों की माँ है संस्कृत।
हिन्दी के प्रयोग का यह अर्थ बिल्कुल नहीं कि मातृभाषा का प्रयोग नहीं करना है बल्कि कार्यालयीय सम्पर्क भाषा के रूप में आज जिस अंग्रेजी का प्रयोग हो रहा है उसकी जगह राजभाषा हिन्दी का प्रयोग करना है। साफ है कि हिन्दी अपने मूल में साम्राज्यवादी बिल्कुल भी नहीं है। भाषा सिर्फ़ संचार का माध्यम ही नहीं अपितु वह संस्कृति की वाहक भी होती है। विदेशी भाषा अंग्रेजी ने जिस तरीके से आधुनिकरण के नाम पर पश्चिमीकरण कर डाला , उससे भारतीय संस्कृति दूषित होने लगी। संस्कृति के इस आदान प्रदान में फ़ायदा कम दूषण ज़्यादा हुआ।
देश की प्रगति बनाम हिंदी की प्रगति
आज़ादी के बाद देश ने लगभग हर मानक सूचकांकों पर अपनी गरिमामयी उपस्थिति दर्ज कराई। साक्षरता दर ,शिशु मृत्यु दर ,जीवन प्रत्याशा और मानव संसाधन सूचकांक आदि में काफी उल्लेखनीय प्रगति हासिल किया। विज्ञान के कुछ विशेष क्षेत्र यथा -अंतरिक्ष ,परमाणु ,जीनोम विज्ञान ,रक्षा अनुसन्धान और उपग्रह प्रक्षेपण आदि में देश को अप्रत्याशित सफलता मिली है। आर्थिक स्तर पर हम उत्तरोत्तर प्रगति के पथ पर हैं।
परन्तु अफ़सोस कि हिन्दी की प्रगति देश की प्रगति से असंगत रही है। हिंदी में आज प्रचुर मात्रा में साहित्य का सृजन हो रहा है । हमने इसी वर्ष पहला प्रतिष्ठित बुकर पुरस्कार भी जीता। लेकिन यह आज भी अंग्रेजी जैसी रोजगारदायिनी नहीं बन पायी है। आज देश के जनता स्वतःस्फूर्त अंग्रेजी पढ़ रही है लेकिन हिन्दी नहीं। कारण रोजगार की कमी ! ‘हिन्दी पढ़कर क्या करोगे? सिवाय हिन्दी पढ़ाने के !’अभिभावकों में यह वाक्य आम होता जा रहा है।
सिनेमा और हिन्दी
शायर और गीतकार गुलज़ार ने 8 वें विश्व हिंदी सम्मेलन के तहत 'हिन्दी के प्रचार प्रसार में हिन्दी फिल्मों की भूमिका' सत्र की अध्यक्षता करते हुए कहा - हिन्दी के प्रचार-प्रसार में फिल्मों ने साहित्य अकादमियों और नेशनल बुक ट्रस्ट से ज्यादा योगदान दिया है। सिनेमा ने न सिर्फ हिंदी पट्टी अपितु अहिन्दी क्षेत्रों में भी हिंदी को लोकप्रिय बनाया है। आज बॉलीवुड की सफल फिल्में दक्षिण भारत में भी उतनी ही मन से देखी जा रही हैं जितनी उत्तर भारत में। आज आप भारत के किसी भी कोनें में पहुँच जाएँ वे हिन्दी इसलिए समझ पाते हैं कि उन्होने उसे फिल्मों अथवा अन्य मनोरंजन के माध्यम से देखा व सुना है । बॉलीवुड सिनेमा के दर्शकों का एक ठीक-ठाक वर्ग विदेशों में स्थापित हो चुका है जिनकी संख्या में धीरे -धीरे बढ़ती जा रही है। सुखद आश्चर्य है कि कुछ फिल्में देश की अपेक्षा विदेशों में अधिक सफल रही । सिनेमा ने हिन्दी की लोकप्रियता जरूर बढ़ाया लेकिन साथ ही साथ भाषायी स्खलन भी तेजी से हुआ है जो साहित्यिक स्तर पर काम्य नहीं है।
बाज़ार और हिन्दी
ऐसा लग रहा है कि भारत में बाजार का अदृश्य हाथ अब हिंदी के साथ है। भारत में बहुराष्ट्रीय कंपनियां भले ही अपना आंतरिक काम-काज अंग्रेजी में करें लेकिन अपने उत्पाद को बेचने के लिए उन्हें भारत की लोकप्रिय भाषा हिंदी की शरण में आना पड़ता है। ‘ठण्डा मतलब कोकाकोला’ व ‘सस्ता नहीं ,सबसे अच्छा’ जैसे लोकप्रिय विज्ञापन दर्शाते हैं कि बाज़ार को हिन्दी की कितनी ज़रूरत है । दुनिया का सबसे बड़ा शॉपिंग पोर्टल अमेजान अब हिन्दी में भी उपलब्ध है । लगभग हर बाज़ार अब हिन्दी में भी अपने उपभोक्ताओं से सम्पर्क स्थापित कर रहा है ।
हिंदी मीडिया और हिंदी
हिन्दी पत्रकारिता प्रयोजनमूलक हिंदी का वह परिसर है जहां पर हिंदी अपेक्षाकृत सफल रही है । आज़ादी के बाद से हिंदी पत्रकारिता ने काफ़ी मौलिकता से अपनी सामाजिक और लोकतांत्रिक ज़िम्मेदारियों का निर्वहन किया । लेकिन जब से सेटेलाइट न्यूज़ चैनलों की भरमार हुई , समाचार शोर और तमाशा का पर्याय बनने लगा । इलेक्ट्रॉनिक चैनलों के बीच की बढ़ती प्रतिस्पर्धा ने हिंदी पत्रकारिता को अ-गम्भीर बनाया और रही-सही कसर मशरूम की तरह उगे ऑनलाइन न्यूज पोर्टल्स ने पूरा कर दिया ।
तकनीकी दुनिया का विस्तार और हिन्दी
पिछले कुछ दशकों में तकनीकी दुनिया का अभूतपूर्व विकास हुआ । सच्चे अर्थों में तकनीकी दुनिया का अमृत काल चल रहा है और अमृत महोत्सव मनाने की यही दुनिया अधिकारी भी है । स्मार्टफ़ोन , इंटरनेट ,पर्सनल कम्प्यूटर ,कृत्रिमबौद्धिक क्षमता और सोशल मीडिया ने वर्तमान मानव सभ्यता को अपने सम्मोहित करके अपने मोहपाश में बाँध दिया है ।इनसे कोई भी अछूता नहीं है । सुखद है कि इन सभी तकनीक पर हिंदी सवार होकर आगे बढ़ रही है । इंटरनेट और सोशल मीडिया पर हिन्दी सम्प्रेषण की एक महत्वपूर्ण भाषा होकर उभरी है । तमाम सॉफ़्टवेयर की
उपलब्धता औरउसकी हिन्दी के प्रति अनुरूपता ने हिंदी के प्रचार - प्रसार में काफ़ी मदद किया ।
आगे की राह
किसी भी भाषा को जब तक शासकीय संरक्षण नहीं मिलेगा तब तक उसका विस्तार संभव नहीं है। सैद्धांतिक रूप से हिन्दी को राजभाषा की यह उपलब्धि हासिल हुई लेकिन व्यावहारिक स्तर पर काफी कमियां हैं। आज़ादी के बाद हिन्दी क्षेत्रीय राजनीति की शिकार हो गयी। चूँकि जब भाषा की समस्या राजनीतिक हो चुकी है तब इसका समाधान भी राजनीतिक तरीके से ढूढ़ना होगा। केंद्र को उन राज्यों में जहाँ हिन्दी का विरोध है ,के पक्ष और विपक्ष के सभी नेताओं से मिलकर इस मुद्दे का समाधान खोजना होगा।
जैसे देश ने हर क्षेत्र में अपने झंडे गाड़े हैं ,वैसे ही हिंदी (हिंदी प्रेमियों और सरकार के संयुक्त प्रयास से) को हर क्षेत्रों यथा - व्यापार जगत , व्यावसायिक शिक्षा , तकनीकी शिक्षा , चिकित्सा ,मौलिक अनुसन्धान व अंतरिक्ष क्षेत्र आदि में अपने प्रयोग को बढ़ाने की दिशा में काम करना होगा अन्यथा यह सिर्फ एक अनुवाद की भाषा रह जायेगी। अगर ऐसा कर पाने में हम सब सक्षम हो पाए तो इससे हिन्दी भाषा में रोजगार की सम्भावना बढ़ेगी। हिंदी पढ़ने और इसके प्रयोग करने के लिए लोग बढ़ -चढ़ कर आगे आने लगेंगे जैसे आज हम भारतीय पूरे जोश में अंग्रेजी सीखते हैं। भविष्य का वह दौर अमृत काल होगा और हम अमृत महोत्सव मना पाएंगे।
( इस निबंध के लेखक भवतोष पाण्डेय जो पेशे से इंजीनियर हैं लेकिन हिंदी लेखन में सक्रिय हैं)
Email- bhav.itbhu@gmail.com)
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एक वर्ष पहले
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