दिल की चोटों ने कभी चैन से रहने न दिया,
जब चली सर्द हवा मैंने तुझ
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दिल की चोटों ने कभी चैन से रहने न दिया,
जब चली सर्द हवा मैंने तुझे याद किया।
इसका रोना नहीं क्यों तुमने किया दिल बरबाद,
इसका ग़म है कि बहुत देर में बरबाद किया।
गुलाम अली की खनकती आवाज में ये ग़ज़ल आप जितनी बार सुनेंगे, कानों के तार-तार बजने लगेंगे, और अगर शेरो-शायरी का शौक रखते हैं तो 'जोश' साहब जरूर याद आएंगे। जी हाँ, जोश मलीहाबादी ! वही जोश मलीहाबादी जिन्होंने अपनी क्रांतिकारी नज़्मों से अंग्रेज सरकार की खटिया खड़ी कर दी थी।
मीर और ग़ालिब के बाद अगर किसी ने उर्दू कविता को नई ऊंचाई दी, उसे समृद्ध किया तो निस्संदेह एक नाम 'शब्बीर हसन खां' यानि जोश मलीहाबादी का भी होगा। जोश साहब को अपनी ग़ज़लों, नज़्मों और मर्सियों की मार्फ़त बहुत शोहरत मिली।
जोश मलीहाबादी विद्रोही प्रकृति के शायर थे, अपनी नज़्मों-ग़ज़लों में उन तमाम दकियानूसी परंपराओं को तोड़ते हैं जो उन्हें ग़ैर तार्किक लगता है।
'जोश' सच्चे अर्थों में इंक़लाबी शायर थे, लेकिन स्वभाव से बहुत संवेदनशील थे और उनका इंक़लाबी, देश प्रेम से उपजा हुआ इंक़लाब है । अपनी नज़्म ”ईस्ट इंडिया कंपनी के फ़रजंदों के नाम” में उन्होंने लिखा-
जुल्म भूले, रागिनी इंसाफ़ की गाने लगे
लग गई है आग क्या घर में कि चिल्लाने लगे
इक कहानी वक़्त लिखेगा नये मज़मून की
जिसकी सुखी को ज़रूरत है तुम्हारे ख़ून की।
कहा जाता है कि इस तरह की उनकी कई नज़्में अंग्रेज़ सरकार द्वारा ज़ब्त कर ली गयीं थीं। 5 दिसंबर 1998 को उत्तर प्रदेश के लखनऊ के मलीहाबाद में "जोश" साहब का जन्म हुआ। इनका वास्तविक नाम शब्बीर हसन खान था। "जोश" मलीहाबादी उर्दू, अरबी और फ़ारसी के जानकार थे, उर्दू से तो उन्हें बहुत लगाव था। 1958 तक वे भारत के नागरिक रहे लेकिन उसके बाद पाकिस्तान चले गए। मलीहाबाद उनके रोम-रोम में बसा था। उनके ये जज़्बात उनकी नज़्म "ऐ मलीहाबाद के रंगीं गुलिस्तां" में निकलते हैं-
कल से कौन इस बाग़ को रंगीं बनाने आएगा
कौन फूलों की हंसी पर मुस्कुराने आएगा
कौन इस सब्ज़े को सोते से जगाने आएगा
कौन जागेगा क़मर के नाज़ उठाने के लिये
चांदनी रातों को ज़ानू पर सुलाने के लिये
ऐ मलीहाबाद के रंगीं गुलिस्तां अलविदा
जोश मलीहाबादी जवाहरलाल नेहरू के नज़दीकी थे
पाकिस्तान जाने के बाद मृत्युपर्यन्त वहीं रहे। 'यादों की बारात' जोश साहब की आत्मकथा है। जिसमें भारत से संबंधित बहुत से संस्मरण हैं। इसी पुस्तक में पाकिस्तान में हुई अपनी फजीहत के विषय में उन्होंने विस्तार से लिखा है।
जोश मलीहाबादी जवाहरलाल नेहरू के नज़दीकी थे और नेहरू जोश के मुरीद। कई बार दोनों की शामें एक-दूसरे की सोहबत में गुज़रती थीं। नेहरू ने उनके कई मुशायरे सुने थे। कहा जाता है कि तक़सीम-ए-हिंद के बाद नेहरू ही वह असल वजह थे जिसके कारण 'जोश' हिन्दुस्तान का दामन थामे बैठे हुए थे।
किसी कार्य बस जोश को 1955 में पाकिस्तान जाना पड़ा जहाँ उन्होंने 2-3 महीने बिताये भी। उसी दौरान जोश के पुराने मित्र सैयद अबू तालिब नक़वी, जो कि करांची के चीफ कमिश्नर भीथे, ने जोश के सामने ये प्रस्ताव रखा कि- 'यदि आप भारत को छोड़कर पाकिस्तान को अपना वतन मान लें तो 19000 रुपया मासिक की आय का स्थायी प्रबंध किया जा सकता है, जो आपके बाद आपके संतान को भी मिलती रहेगी। पाकिस्तान सरकार उर्दू के व्यापक प्रचार-प्रसार के लिए एक समिति बनाना चाहती है जिसकी अध्यक्षता आप स्वीकृत कर लें।'
प्रस्ताव सुनकर जोश साहब ने फरमाया अपने भारतीय मित्रों से राय-मशवरे के बाद ही निश्चयात्मक उत्तर दिया जा सकता है। भारत आने पर जोश साहब ने पं. नेहरू, मौलाना आज़ाद आदि अपने हितैषियों से राय-मशवरा किया तो सभी ने पाकिस्तान जाकर बसने के लिए असहमति प्रकट की।
भटक कर जो बिछुड़ गए हैं
भटक कर जो बिछुड़ गए हैं
रास्ते पर आएंगे
लपक के एक- दूसरे को
फिर गले लगाएंगे
15 अगस्त 1947 को अपने मनोभाव इस तरह व्यक्त करनेवाले जोश मलीहाबादी को कमिश्नर का प्रस्ताव ठीक लगने लगा था, पाकिस्तान उनको रास आने लगा था। अपनी आत्मकथा 'यादों की बारात' में इस बात का जिक्र करते हैं- ''प्रस्ताव सुनकर नेहरू जी ने पहले तो मना कर दिया लेकिन बाद में जोश के दबाव डालने पर कहा- अगर आप अपने बच्चों का आर्थिक और सांस्कृतिक भविष्य संवारने के लिए पाकिस्तान जाना चाहते हैं तो आप आप बच्चों को पाकिस्तानी बन जाने दें लेकिन आप यहीं रहें। रही बात उर्दू के ख़िदमत की तो हर साल 4 महीने पाकिस्तान जाकर वह मंशा भी पूरी कर आया करें। भारत सरकार आपको पूरी तनख़्वाह और छुट्टी भी दे दिया करेगी।''
जोश को बात जम गयी, पाकिस्तान जाकर जब यह बात कमिश्नर अबू तालिब को बताई तो उन्होंने कहा- 'ऐसा क्यों होगा कि आप पाकिस्तान के नागरिक ना बनें और आपको यहाँ ज़मीन का अलॉटमेंट कर दिया जाए। हमारे वास्ते यह नामुमकिन हो जाएगा, यहाँ के लोग आपको पाकिस्तानी समझेंगे ही नहीं। जोश साहब! दो कश्तियों में पाँव रख कर दरिया पार नहीं किया जाता। जोश, चीफ कमिश्नर की बातों में आ गए। और विडंबना देखिए कि बुढ़ापे में पाकिस्तान चले ही गए लेकिन उनका यह निर्णय उन पर बहुत भारी पड़ा। पाकिस्तान में उनकी हालत और भी ख़राब हो गयी। वहां जो उन पर गुज़री वह किसी सदमे से कम नहीं।
सरकार ने वहां बसने के एवज में उनके लिए काफ़ी इंतज़ाम और वादे किए थे इससे पाकिस्तानी नाख़ुश थे। फिर बीच-बीच में वे हिंदुस्तान भी आते थे और पाकिस्तानी उनके नेहरू प्रेम से नावाकिफ़ नहीं थे।
लिहाज़ा, पाकिस्तान में उनके ख़िलाफ़ हो एक वातावरण बन गया था। लोगों ने कहा कि सरकार ने आधा पाकिस्तान जोश को घूस में दे दिया है। उन्हें गद्दार और भारत का एजेंट तक बताया गया।
जोश की आत्मा आज भी लखनऊ के मलीहाबाद के आम के बाग़ों में ही फिरती होगी
अपनी नाकामियां गिनाते हुए जोश लिखते हैं-
- जहाँगीर रोड का सिनेमा प्लाॅट और बाग़ लगाने कि ज़मीन जोश ने ख़ुद वापस कर दी।
- एक सोसायटी का सिनेमा प्लाॅट जोश के नाम छूटा, क़ीमत अदा न कर सके इसलिए हाथ से निकल गया।
- काश्तकारी के लिए डिप्टी कमिश्नर करांची ने 50 एकड़ ज़मीन दी थी जिसे अल्ताफ गौहर ने जब्त कर ली।
- साइकिल- रिक्शा के परमिट मिले, लेकिन भाव गिर गए तो परमिट हवा में उड़ गए।
- किसी तरह कोल्ड स्टोरेज की इजाज़त मिली तो रूपया लगानेवालों को बरगला दिया गया।
- टेक्सटाइल का इजाज़तनामा मिलने ही वाला था कि वज़ीर बदल गया।
- हालात इस कदर बिगड़ गए कि जोश मलीहाबादी का मुशायरों तक में जाना बंद हो गया और वे वहाँ स्वयं को तन्हा महसूस करने लगे।
1967 में वे एक दफ़ा चंद महीनों के लिए हिन्दुस्तान आये और इस दौरान उन्होंने मुंबई में एक अख़बार में इंटरव्यू दिया। उसका नतीजा यह हुआ कि पाकिस्तान सरकार ने उनकी सरकारी नौकरी छीन ली। जोश मलीहाबादी के जीवन आख़िर के कुछ साल गुमनामी में गुज़रे और इसी अफ़सोस में 22 फरवरी 1982 को वे इस दुनिया से रुख़्सत हो गए।
जोश का इंतकाल तो पाकिस्तान में हुआ लेकिन उनकी आत्मा आज भी लखनऊ के मलीहाबाद के आम के बाग़ों में ही फिरती होगी।
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