मैं 'मीर' का दम भरता हूँ 'असर'
मैं उसके कलाम का शैदा हूँ..
वह कवि, शायर और साहित्यकार बड़ा और कालजयी हो जाता है जिसे समकालीन लोगों की सराहना मिलती है और बाद की पीढ़ियाँ भी जिसे याद करती हैं.. जिसे अपना आदर्श मानती हैं.. जिसकी तरह वह लिखना-पढ़ना-गुनगुनाना चाहती हैं.. भाषा का वैसा मुहावरा और कहन का वैसा जादू अपने एहसासों में भरना चाहती हैं.. कुछ ऐसे ही हैं उर्दू अदब के जाने-माने शायर मीर तकी मीर.. जिनके जैसा सब होना चाहते हैं। फ़िर वह ग़ालिब हों कि दाग.. सौदा हों कि हसरत मोहानी.. ज़ौक हों कि अहमद फ़राज़.. मीर तक़ी मीर की शायरी ने सबके दिलों पर किया राज.. मीर को सबकी दाद मिली। उर्दू के हर शायर के दिल में उनके लिए बेइंतहा मोहब्बत और इज्ज़त थी।
ख़ुदा-ए-सुखन मानते थे उर्दू के शायर
शाने नकवी डिजिटल प्लेटफॉर्म 'साहित्य तक' पर एक साक्षात्कार में कहते हैं-
" उर्दू के शायर उन्हें ख़ुदा-ए-सुखन मानते थे। मीर का अंदाज़ देखिए। मीर के ऊपर लोगों ने क़लम तोड़ दिए लेकिन उनको वो अंदाज़ नसीब नहीं हो पाया .."
जाने-माने शायर ज़ौक दहलवी लिखते हैं:-
न हुआ पर न हुआ 'मीर' सा अंदाज़ नसीब
'ज़ौक' यारों ने बहुत ज़ोर ग़ज़ल में मारा
जफर अली खाँ 'असर लखनवी' लिखते हैं:-
मैं 'मीर' का दम भरता हूँ 'असर'
मैं उसके कलाम का शैदा हूँ
हाँ शेर तो तुम कह लेते हो
वो बोल बनाना मुश्किल है
मौलाना हसरत मोहानी लिखते हैं:-
शेर मेरे भी हैं पुर-दर्द व-लेकिन 'हसरत'
मीर का शेवा-ए- गुफ्तार कहाँ से लाऊँ
मशहूर शायर मिर्ज़ा ग़ालिब का यह शेर तो बहुतों की ज़बान पर आज भी आता रहता है:-
रेख़्ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो 'ग़ालिब'
कहते हैं अगले ज़माने में कोई मीर भी था
ग़ालिब एक जगह और कहते हैं:-
'ग़ालिब' अपना ये अकीदा है ब-कौल-ए- 'नासिख'
आप बे-बहरा हैं जो मो'तकिद'-ए-'मीर' नहीं
ग़ालिब यहीं नहीं रुकते। फ़िर लिखते हैं:-
मीर के शेर का अह्वाल कहूँ क्या 'ग़ालिब'
जिसका दीवान कम-अज-गुल्शन-ए-कश्मीर नहीं
मीर तक़ी मीर के समकालीन शायर 'सौदा' भी मीर से ख़ासे प्रभावित नज़र आते हैं और उनके जैसा ही हो जाना चाहते हैं। वह लिखते हैं:-
'सौदा' तू इस ग़ज़ल को ग़ज़ल--दर-ग़ज़ल ही कह
होना है तुझको 'मीर' से उस्ताद की तरह
गुज़रे ज़माने के मशहूर शायर दाग़ देहलवी कहते हैं:-
'मीर' का रंग बरतना नहीं आसाँ ऐ 'दाग़'
अपने दीवां से मिला देखिए दीवां उनका
युग कवि डॉ. कुमार विश्वास द्वारा शायरी के संचयन निकाले जाने के बाद पुन: नई लोकप्रियता पाने वाले जाने-माने शायर जॉन एलिया लिखते हैं:-
शायर तो दो हैं मीर तकी और मीर जौन
शायर जो हैं वो शाम-ओ-सहर खैरियत से हैं
दर्शन के दीवाने और ख़ुदरंग शायर
मीर तकी मीर इश्क़ और दर्शन के दीवाने और ख़ुदरंग शायर थे। उनके पिता एक सूफ़ी थे। ख़ुद को खोकर ख़ुदा को पा लेने वाले सूफियों के बीच उनका बचपन गुज़रा था। उनके उस्ताद अमानुल्ला ने उन्हें प्रेम और मोहब्बत के मायने सिखाए थे। कहते हैं कि मीर को दीवानगी के दौरे पड़े थे। वे आगरा से दिल्ली अपने मामू जान सिराज के घर रहने गए और वहाँ उन्हें उनकी बेटी से इश्क़ हो गया। चाँद में उनको अपने महबूब की सूरत दिखती थी।
दिल की तह की कही नहीं जाती, नाज़ुक है इसरार बहुत
अक्षर तो हैं इश्क़ के दो ही, लेकिन है विस्तार बहुत
रात से शोहरत इस बस्ती में 'मीर' के उठ जाने की है
जंगल में जो जल्द बसा जा शायद था बीमार बहुत
इश्क़ के दो अक्षरों में असीम विस्तार देखने वाले मीर की शायरी में इश्क़ के रंग-रूप देखिए:-
हम हुए तुम हुए कि 'मीर' हुए
उसकी जुल्फों के सब असीर हुए
इश्क़ ही इश्क़ है जिधर देखो
सारे आलम में भर गया है इश्क़
यह अपने महबूब से बिछड़ने का ग़म ही था जो उनकी शायरी में दर्द बनकर, तड़प बनकर, आँसू बनकर तो कभी आह बनकर छलक पड़ा..
मेरे रोने की हक़ीक़त जिसमें थी
एक मुद्दत तक वो कागज़ नम रहा
मिरे सलीके से मेरी निभी मोहब्बत में
तमाम उम्र मैं नाकामियों से काम लिया
क्या करूँ शरह खस्ता जानी की
मैंने मर मर के जिन्दगानी की
देख तो दिल के जाँ से उठता है
यह धुआँ सा कहाँ से उठता है
हमको शायर न कहो 'मीर' के साहिब हमने
दर्द-ओ-ग़म कितने किए जमअ' तो दीवान किया
सर से पाँव तक इश्क़ में डूबे 'मीर' की शायरी के एक और दीवाने शायर अहमद फ़राज़ तो मोहब्बत करने वालों को यह मश्वरा तक दे देते हैं:-
आशिक़ी में मीर जैसे ख़्वाब मत देखा करो
बावले हो जाओगे महताब मत देखा करो
सन् 1723 में मीर तक़ी मीर का जन्म आगरा में हुआ था। 17 साल की उम्र में दिल्ली जाने से पहले उनका बचपन और किशोरावस्था आगरा में ही बीती। उसी आगरा में जहाँ मुझ अकिंचन को भी पलने और बढ़ने का अवसर मिला।
आँख में रोशनी जो ताज़ा है
शायद इसीलिए मेरी क़लम से ये फूट पड़ा:-
आँख में रोशनी जो ताज़ा है
एक तारा कहीं पर चमका है
क्यों न उर्दू हो मेरे लहज़े में
मीर का आगरा से रिश्ता है
मीर तक़ी मीर जब दिल्ली पहुँचे, उस समय शाही दरबार में फ़ारसी शायरी को अधिक महत्व दिया जाता था। मीर तकी मीर को उर्दू में शेर कहने का प्रोत्साहन अमरोहा के सैयद शहादत अली ने दिया। 25-26 साल की उम्र तक मीर एक दीवाने शायर के रूप में लोकप्रिय हो गए थे।
आख़री दम तक रही दिल्ली से मोहब्बत
15 हजार शेरों के साथ ग़ज़लों के छह दीवान दुनिया को प्रदान करने वाले मीर 20 सितंबर, 1810 ई. को यह दुनिया छोड़कर चले गए। मीर की मृत्यु लखनऊ में हुई लेकिन दिल्ली से मीर की मोहब्बत आख़री दम तक कम नहीं हुई।
क्या बूद-ओ-बाश पूछो हो पूरब के साकिनो
हमको ग़रीब जान के हँस हँस पुकार के
दिल्ली जो एक शहर था आलम में इंतिख़ाब
रहते थे मुंतखिब ही जहाँ रोज़गार के
उसको फलक ने लूट के वीरान कर दिया
हम रहने वाले हैं उसी उजड़े दयार के
मीर तक़ी मीर के दीवाने आज भी कम नहीं। आज भी उनके दीवाने उनके दीवान को तकिए के बगल में रखकर सोते हैं। उनके अशआर पढ़ कर रोते हैं। मीर भी अपने दीवानों की दीवानगी से वाक़िफ थे। इसीलिए वे पहले ही लिख गए..
पढ़ते फिरेंगे गलियों में इन रेख़्तों को लोग
मुद्दत रहेंगी याद ये बातें हमारियाँ
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ख़ुदा-ए-सुखन मानते थे उर्दू के शायर
9 महीने पहले
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