बनारस शहर लासानी
नहीं इसका कोई शानी
मुझे तो ऐसा लगता है
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बनारस शहर लासानी
नहीं इसका कोई शानी
मुझे तो ऐसा लगता है
कि देहली ने
बनारस को
कभी सपने में देखा है
तभी तो
मुँह में भर आया
नहर के रूप में पानी
यहां की आबो हवा उन्हें इतनी रास आई कि उन्होंने इस शहर पर एक मसनवी "चिराग़-ए-दैर'' ( मंदिर की दिया) लिखा। फ़ारसी या उर्दू में मसनवी उस विशेष काव्य विधा को कहते हैं जिसमें साधारणत: किस्से-कहानी या वाक़िये का ज़िक्र होता है। यह मसनवी उन्होंने फ़ारसी में लिखी थी।
ग़ालिब लिखते हैं- जब मैं बनारस में दाखिल हुआ, उस दिन पूरब की तरफ़ से जान बख़्शने वाली, जन्नत-सी हवा चली, जिसने मेरे बदन को तवानाई अता की यानी ताकत या शक्ति अता की और दिल में एक नयी रूह फूँक दी। उस हवा के करिश्माई असर ने मेरे जिस्म को फ़तह के झण्डे की तरह बुलन्द कर दिया। ठण्डी हवा की लहरों ने मेरे बदन की कमज़ोरी दूर की।
बनारस में कुछ दिन गुज़ारने और शहर के विभिन्न इलाक़ों की शैर करने के बाद उन्होंने जो अनुभव किया उसके बारे में लिखते हैं-
''बनारस शहर के क्या कहने ! अगर मैं इसे दुनिया के दिल का नुक़्ता (बिंदु) कहूं तो दुरुस्त है। इसकी आबादी और इसके अतराफ़ के क्या कहने ! अगर हरियाली और फ़ूलों के ज़ोर की वजह से मैं इसे ज़मीन पर जन्नत कहूं तो बजा है। इसकी हवा मुर्दों के बदन में रूह फूंक देती है। इसकी ख़ाक के ज़र्रे (कण) मुसाफ़िरों के तलवों से कांटे खींच निकालते हैं। अगर दरिया-ए-गंगा इसके क़दमों पर अपनी पेशानी न मलता तो वह हमारी नज़रों में मोहतरम (प्रतिष्ठित) न होता, और अगर सूरज इसके दरो-दीवार के ऊपर से न गुज़रता तो वह इतना रौशन और ताबनाक न होता।''
गद्य में बनारस की इतनी प्रशंसा करने के बाद ग़ालिब ने उसी ख़त में अपने बारह शेर भी लिखे हैं जो बनारस में ही कहे थे, ये सभी शेर फ़ारसी में थे।
जो
बनारस की
फ़जाओं में मिला
अध्यात्म का रस्ता
बहुत अच्छा है
और सच्चा है
यह
हरगिज़ न छोड़ो
षट-दिशाओं में
करो विचरण
तुम इससे
मुंह न मोड़ो
उन्होंने लिखा- यहीं के बुतखानों में बजाये जानेवाले शंखों की आवाज़ें सुनकर उन्हें ख़ुशी महसूस होती है। इतना ही नहीं अपने इसी ख़त में ग़ालिब ने लिखा- अगर उन्हें दुश्मनों की शमातत का ख़ौफ नहीं होता तो वे अपना मज़हब तर्क करके माथे पर तिलक लगा लेते, जनेऊ धारण कर लेते और इसी हुलिये में गंगा किनारे जा बैठते और उस समय तक वहीं बैठे रहते जब तक कि ज़िंदगी भर के गुनाहों की गर्द धुल न जाती और वे पानी के एक क़तरे की तरह दरिया में न मिल जाते यानी उनकी आत्मा ब्रह्मलीन न हो जाती।
एक शेर में कहते हैं-
धन्य है
धरती बनारस की
जो हर इक आत्मा को
शांति प्रदान करती है
जो सारी आत्माओं से
बुरी नज़रों के
हर प्रभाव को
धो डालती है
हर बला को
टालती है
एक और शेर में वो कहते हैं
परिवर्तन
प्रकृति का
स्थायी नियम है
सच सही
लेकिन
बनारस जैसे
मायावी नगर में ही
बहारें
इस नियम से
मुक्त रही हैं
एक और शेर का अनुवाद है-
इस शहर की
एक मुठ्ठी धूल
ब्रह्मलीनता के
ख़ास आलम में
शिवालय की तरह है
और हरियाली में
इसका
एक एक काँटा
यह मानो
स्वर्ग जैसा है
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