मैथ्स में उसकी बहुत रुचि थी। उसे बहुत से फार्मूले जुबानी याद थे। उम्र के साथ-साथ वे फार्मूले धुंधले पड़ते चले गए। लेकिन एक इक्वेशन उसे याद रह गयी। इस इक्वेशन में 'सी' का भी इस्तेमाल था। ‘सी’ का अर्थ था ‘कांस्टेंट टर्म’। यानी सी की वैल्यू नहीं बदलती थी। मैथ्स छूट गया। धीरे-धीरे वह इस इक्वेशन को भी भूलने लगा। भूल ही गया। बस ”सी” कांस्टेंट टर्म है यह उसे याद रहा। जीवन में इस इक्वेशन की कभी दोबारा जरूरत पड़ेगी, ऐसा लगता नहीं था। ऐसा इसलिए भी नहीं लगता था कि मैथ्स उससे पूरी तरह छूट गया था और वह पत्रकारिता के क्षेत्र में काम कर रहा था। इसमें अलग ही तरह की 'इक्वेशंस' काम करती हैं। लिहाजा 'सी' उसके जेहन से उतरने लगा था। हालांकि बातचीत में वह बराबर ‘कांस्टेंट टर्म’ का इस्तेमाल करता रहा। और फिर कुछ ऐसा हुआ कि जीवन की सभी इक्वेशंस बदलती नजर आईं। ढलती उम्र में वह किसी लड़की से अटैच हो गया। भूल गया कि प्यार कोई ‘कांस्टेंट टर्म’ नहीं है। ”प्यार का टर्म पूरा हुआ”। आज वह उससे मिलने के लिए जा रहा है-आखिरी बार। ब्रेकअप के लिए-इस उम्र में। उसे लगा कि प्रेम कितनी भी बार क्यों न हो, अहसास पहले प्रेम जैसा ही होता है। लेकिन अब तो यह प्रेम खत्म होने जा रहा है। वह उसके घर जा रहा है। मन बहुत भारी है। लेकिन जाना तो होगा ही। और कोई रास्ता भी नहीं है। उसने ऑटो किया और उसके घर पहुंच गया। उसी कमरे में जहां उनके प्रेम का आगाज हुआ था। कुछ देर दोनों इसी तरह खामोश बैठे रहे। ऐसा लग रहा था जैसे सब कुछ ‘कॉन्स्टेंट’ हो गया है, ठहर गया है।
पर बात कहीं से तो शुरू करनी ही थी। उसे ब्रेकअप का कोई अनुभव नहीं था। इन्सानों की बात तो दूसरी है, वह तो दीवारों तक से ब्रेकअप नहीं करता। उसने कभी नाई की दुकान नहीं बदली। आज भी वह उसी से बाल कटवाता है जिससे शायद पहली बार कटवाये थे। लेकिन प्रेम करना हेयर कट कराना नहीं है। इतने वर्षों में वह बिलकुल नहीं बदला। लेकिन समय बदल गया। अब शायद कुछ नहीं हो सकता था। फिर भी उसे उम्मीद थी कि शायद यह रिश्ता बच जाए। वह इस रिश्ते को बचाने की कोशिश क्यों कर रहा था, यह उसकी समझ से परे था। वह यह भी अच्छी तरह नहीं जानता था कि यह सचमुच कोई रिश्ता था भी या नहीं? लिहाजा वह इंतजार करता रहा कि वही कुछ कहेगी। उसने कुछ नहीं कहा। वह तो जैसे यह मान कर बैठी थी, सब कुछ खत्म हो चुका है। हार कर उसे ही शुरू करना पड़ा।
”तुम्हारी आंखों में मुझे वह पहले जैसा प्यार और आत्मीयता दिखाई नहीं देती,” उसने यह वाक्य कहने को तो कह दिया, लेकिन उसे लगा कि अचानक वह बहुत छोटा हो गया है। उसमें इतनी भी हिम्मत नहीं बची थी कि वह उसकी ओर देख सकता। वह कमरे के उस सामान को देखता रहा जो कभी उसे बहुत सुंदर लगा करता था। क्या इस सारे सामान से भी उसका ”ब्रेक अप” हो रहा है।
उसने उसकी आंखों में न देखते हुए दोबारा कहा, तुम्हारी आंखों में मुझे वह आत्मीयता दिखाई नहीं पड़ती। प्यार शब्द उसने इस बार जान बूझकर नहीं कहा था। पता नहीं क्यों उसे प्यार कहने से डर सा लगा था।
वह चुप बैठी रही। उसने कुछ भी नहीं कहा। दोनों के बीच गहरा सन्नाटा पसरा हुआ था। दोनों एक-दूसरे को देखने से भी बच रहे थे। समय बिताना बेहद कठिन होता जा रहा था। वह कमरे को गौर से देखने लगा। एक पॉश एरिया की विशाल कोठी के दूसरे माले पर बना यह छोटा-सा कमरा। कमरे में एक डबल बेड पड़ा है। एक वॉशिंग मशीन पर कुछ गंदे कपड़े रखे हैं। बेतरतीब सा सामान चारों तरफ फैला है। वह डबल बेड के पास पड़ी एक कुरसी पर बैठा है। सामने की ओर एक खिड़की है, जो खुलने पर इस बात का अहसास कराती है कि बाहर भी एक दुनिया है। लेकिन खिड़की बंद है। इसी कमरे में दोनों की प्रेम कहानी शुरू हुई थी। यहीं पहली बार दोनों ने एक दूसरे को ”हग” किया था और यहीं उसने पहली बार लड़की के पतले-पतले होंठों पर अपने होंठ रखे थे। तब यह कमरा कितना सुंदर लगता था। यहां फैला सामान बेतरतीब उग आए फूलों जैसा लगता था। प्रेम के इस साक्षी सामान को वह कभी नहीं भूल पाया। वे दोनों इसी कमरे में प्रेम के दीप जला रहे थे। उसका यहां आना एक नियम-सा बनता जा रहा था। इसी कमरे में वे दोनों एक-दूसरे में डूबते चले गये। एक दूसरे की देह के हर मोड़ पर दोनों ठहरते और आगे बढ़ जाते। कभी उन्हें नहीं लगा कि उन दोनों का प्यार कम होगा या खत्म होगा। कमरे के बराबर ही एक बाथरूम है। एक दिन वह कमरे में बैठा हुआ कोई पत्रिका देख रहा था। वह बाथरूम में नहा रही थी। अचानक उसने पाया कि लड़की बाथरूम से एकदम निर्वस्त्र कमरे में आ गयी है...किसी बच्चे की तरह। इसके बहुत देर बाद उसने कपड़े पहने। दोनों एक दूसरे के भीतर ना जाने क्या खोजते रहे। लेकिन अब सब खत्म हो चुका है। खत्म हो रहा है। धीरे-धीरे। उसने लड़की से बहुत जिद की कि एक बार वह उसी कमरे में उससे मिलना चाहता हैं, जहां हमारा प्यार शुरु हुआ और परवान चढ़ा। और आज दोनों ब्रेकअप के लिए मिल रहे हैं।
उसने गौर से देखा वह भी पहले की तरह ही बैठी हुई थी। उसकी आंखें जिनमें उसे पहले समुद्र, सपने, उदासी, खुशियां और ना जाने क्या-क्या दिखाई देता था, वे आज एकदम नीरस और उदास लग रही हैं। एकदम पनीली आँखें। उसे आश्चर्य हो रहा है कि वह इन आँखों पर कैसे फिदा हो गया।
”कुछ बात नहीं करोगी?”
”आप करो....”
”क्या हो गया है तुम्हें, पहले तुम चौबीसों घंटे बात करती थी, कितना हंसती थी, कितना लड़ती थी...और अब मैं कितनी देर से कमरे में बैठा हूं....तुम एकदम खामोश हो.....कम से कम मुझे ये तो बता दो कि हुआ क्या है, क्या तुम्हारे जीवन में कोई और लड़का आ गया है?”
”हां....मैंने सोचा नहीं था...लेकिन मैं उससे अटैच हो गयी हूं....”
”ओह....तो अब तुम पूरी-पूरी रात उससे बातें करती हो....इसलिए मुझसे बात करने का समय नहीं मिलता। इसलिए तुम मुझसे लगातार झूठ बोलती हो....उससे मिलने जाती हो और मुझे.....”
वह कुछ देर सोचती रही....उसकी आँखों में पहली बार आत्मीयता उभरी। उसने धीरे से कहा, ”आपने ही तो मुझे समझाया था कि प्यार कोई ”कॉन्स्टेंट टर्म” नहीं है....वह हमेशा बदलता रहता है...मेरे तुम्हारे बीच जो कुछ हुआ वह मेरे जीवन में हमेशा अहम रहेगा, लेकिन अब....मुझे
बाहर की दुनिया दिखाई देने लगी है....।” वह बेड से उठी और उसने खिड़की खोल दी, जो अब तक बंद थी।
वह उठा और कमरे से बाहर निकल आया।
सुधाशु गुप्त ने 30 साल पत्रकारिता की और कहानियां भी लिखीं। वे कहानियां कई पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं। रेडियो से भी अनेक कहानियां प्रसारित हुईं। रेडियो के लिए अनेक साहित्यिक कृतियों पर धारावाहिक लिखे। अब वे आजीविका के लिए रेडियो और टेलीविजन में धारावाहिक लेखन का काम करते हैं और अपनी भीतरी दुनिया से रिश्ता बनाए रखने के लिए कहानियां लिखते हैं। चार कहानी संग्रह-खाली कॉफी हाउस, उसके साथ चाय का आख़िरी कप, स्माइल प्लीज़ और तेरहवां महीना प्रकाशित हो चुके हैं। युवा स्त्री कहानीकारों की रचनाओं का संपादन, बग़ावती कोरस नाम से प्रकाशित हुआ।
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3 वर्ष पहले
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