जादूगरनी थी वो
अपनी पीठ से चाबुक के निशान मिटा दिया करती थी
गाल से तमाचे के भी
मैंने उसे आँसू से अंजन बनाते देखा है
आसमान में सुखाती थी अपनी धोती
और दुनिया कहती थी इन्द्रघनुष उगा है
छिप कर रोती थी
छिप कर हँसती थी
छिपने में इतनी माहिर कि आँखों से सामने खड़ी रहती थी पर ओझल सी
पूरी दुनिया अपनी उँगली पर लिए नाचती रहती
और जब थक कर सोती तो सुस्ताने लगती पृथ्वी
उसके हाथों से आती थी मसालों की महक
और देह से पसीने की गंध
कभी जो लिपट जाओ उससे तो भीग जाए आत्मा
न जाने कैसे देखती थी आकाश की उदास हो जाता था नभ
बरसते थे बादल तो सुलगती थी वह
कोई स्मृति थी जिसमें डूबती उतराती रहती थी दिन-रात
आँगन को दुनिया और दुनिया को आँगन समझती थी
और उकड़ू बैठ कर लीप देती थी उत्तरी ध्रुव से लेकर दक्षणी ध्रुव तक
दुःख उसके आँचल में खोटे सिक्कों की तरह बंधे थे
और पीड़ा कमर में चाबी के गुच्छे की तरह
भगवान को छाती से लगा कर दूध पिला सकती थी
पर छोटी बच्ची में बदल जाती थी ईश्वर के आगे
जबकि ईश्वर था कि उसका बच्चा होना चाहता था
रसोई में पकाती थी एक अँजुरी चावल
और न्योत देती थी पितर, बरम, देवता
चौदहों भुवन, सातों लोक
ब्रह्मा, विष्णु, महेश
जादूगरनी थी वो
मेरी उम्र थाम के बैठी थी
सिर पर हाथ फेर कर बच्चा बना देती थी।
साभार: अनुराग अनंत की फेसबुक वाल से
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