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रवि प्रकाश की कविता- मेरे प्रेम करने से पहले

कविता
                
                                                         
                            मैं चाहूँगा,
                                                                 
                            
मेरे प्रेम करने से पहले
नदियाँ अनवरत हो जाएँ
और पत्थरों से टकराने का सिलसिला थम जाये !

डूब जाने का डर,
नदियाँ अपने साथ बहा ले जाएँ
और उनकी प्रवाह में डूबा हुआ मेरा पाँव
ये महसूस करे,
कि नदियाँ किसी देवता के सर से नहीं
वरन पृथ्वी की कोख से निकली हैं !

मैं चाहूँगा नदी के किनारे पर बैठी औरत,
जब सुनाए कहानियाँ नदियों की
तो त्याग दे देवताओं की महिमा !
वो बताए अपने पुरखों के बारे में
और बताए, कि सबसे पहले हम आकर, यहीं बसे
नदी हमारा पहला प्रेम थी !

मैं चाहूँगा,
मेरे प्रेम करने से पहले
पेड़ पतझड़ के बाद
बसंत की आवक का, दर्शक ना रह जाए
हरेपन के लिए मौसम के खिलाफ़
नदी और सूर्य को एक कर दे,
वो महसूस कर ले
घोसलों और झोपड़ियों के प्रति अपने दायित्व को !

मैं चाहूँगा,
गौरैया और पेड़, जब आपस में बातें करें
तो कहें, वो आँगन जहाँ तुम्हें दाने मिलते हैं
सृष्टि की आदि में मेरी इन्ही भुजाओं पर बसे थे
आज पृथ्वी से इस पर ईर्ष्या है मेरी !

मैं चाहूँगा,
मेरे प्रेम करने से पहले
पत्थर ह्रदय की तरह धड़कने लगे !
खोल दे ख़ामोशी की सारी तहें,
जहाँ से कभी नदियाँ गुज़रीं
कभी कोमल तो कभी उखड़ जाने जितने दबाव के साथ!
जहाँ लोग शिकार की तलाश में घंटों टेक लिए रहे !

दिखाएँ वे निशान
जहाँ रगड़कर आग पैदा की गई
और कहें,
मेरी ख़ामोशी का मतलब ये ना लिया जाए कि,
आग देवताओं कि देन है
मुझे ही तराशकर उनको आकार दिया गया
जबकि उनके भीतर
मैं आज भी मौन हूँ !
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20 घंटे पहले

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