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मुनव्वर राना की ग़ज़ल: थकन को ओढ़ के बिस्तर में जा के लेट गए

उर्दू अदब
                
                                                         
                            थकन को ओढ़ के बिस्तर में जा के लेट गए
                                                                 
                            
हम अपनी क़ब्र-ए-मुक़र्रर में जा के लेट गए

तमाम उम्र हम इक दूसरे से लड़ते रहे
मगर मरे तो बराबर में जा के लेट गए

हमारी तिश्ना-नसीबी का हाल मत पूछो
वो प्यास थी कि समुंदर में जा के लेट गए

न जाने कैसी थकन थी कभी नहीं उतरी
चले जो घर से तो दफ़्तर में जा के लेट गए

ये बेवक़ूफ़ उन्हें मौत से डराते हैं
जो ख़ुद ही साया-ए-ख़ंजर में जा के लेट गए

तमाम उम्र जो निकले न थे हवेली से
वो एक गुम्बद-ए-बे-दर में जा के लेट गए

सजाए फिरते थे झूटी अना जो चेहरों पर
वो लोग क़स्र-ए-सिकंदर में जा के लेट गए

सज़ा हमारी भी काटी है बाल-बच्चों ने
कि हम उदास हुए घर में जा के लेट गए

20 घंटे पहले

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