90 के दशक के बाद से बमुश्किल ही किसी फ़िल्मी संगीत और उसके बोलों से कोई गंभीर संबंध जुड़ पाया है। इस दौर में एक ऐसा गाना जिसमें शांत और श्रृंगार रस प्रचुर मात्रा में हो और जिसके बोल अलंकारित हों, वह कानों के लिए कुछ ऐसा दुर्लभ हो गया जैसे पिंजड़े में बंद पंक्षी के लिए आज़ादी।
इसी तरह रूह को उन्मुक्त करने के लिए कुछ ही गाने थे जो कर्णेन्द्रियों के आगे का सफ़र कर पाए। आज अगर काग़ज़ कलम लेकर कुछ चुनिंदा गानों के नाम लिखूंगी जो दिल को छू पाए तो उनमें से जिस गाने पर विशेष रूप से नज़र ठहर जाएगी वो है, सन् 2009 में आयी फ़िल्म ‘लव आजकल’ का ‘आज दिन चढे़या’। यह गाना अपने आप में उन सभी खूबियों को समेटे हुए है जो मन-सागर में उठने वाली सभी ज्वाराभाटाओं को मौन कर देता है और इसलिए यह मेरे अजीज़ नग़्मों में से एक है।
आज दिन चढ़ेया
तेरे रंग वरगा,
ये प्रसिद्ध पंजाबी शायर शिव कुमार बटालवी के काव्य में से ली गयी पंक्तियां हैं और इसके आगे इरशाद क़ामिल ने अपना जादू डाला है।
मुहब्बत का खुमार कुछ यूं होता है कि उसमें दिन और रात के फ़र्क दिखाई नहीं देते, एक आशिक़ को दिन में उनींदी हो सकती है और रात को जगार लेकिन ख़्वाब हों या हक़ीकत उसे अपने महबूब के चेहरे को देखना अच्छा लगता है, उसको तोहफे देना अच्छा लगता है, उसकी बातें करना अच्छा लगता है और उससे बातें करना और भी अच्छा लगता है। कुछ ऐसा ही हाल इस गाने में सैफ़ अली ख़ान का अपनी महबूबा के लिए हो रहा है जो दिन-रात उसकी एक झलक पाने के लिए उसके घर के आगे बैठे हैं।
आज का दिन बिल्कुल वैसे ही चढ़ रहा है जैसे तेरा रंग, यह उपमान दिया गया है और राहत फ़तेह अली ख़ान की आवाज़ के साथ प्रीतम चक्रवर्ती के संगीत पर यह उपमान और भी सुंदर महसूस होता है।
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आज दिन चढ़ेया, तेरे रंग वरगा...
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