जगजीत सिंह
दफ़्तर और ज़माने की कई उलझनों के बाद जब थके हुए क़दम घर की ओर जाते हैं तो एक प्याली चाय के साथ कुछ संगीत सुनने का मन होता है। ऐसा संगीत जो संसार की थकन से अलग किसी निस्तब्धता की ओर चलायमान हो। कितने बरस तो हुए होंगे कि हर शाम जगजीत सिंह की ही संगत होती है। इतनी सदियों के बीतने पर भी जब धरती की उम्र के साथ ही संगीत की दशा और दिशा भी बदल रही है - जगजीत सिंह के राग मेघ की चिरपरिचित आवाज़ की तरह साथ रहते हैं।
इन दिनों जब बसंत की बहार है और दिन के तीसरे पहर में तेज़ लेकिन शीतल बयार बहती है और तब जब कोई कमी किसी दरार की तरह दीवार से झांकने लगती है कि कुछ तो गीत होगा कि जिसके राग से समय की इन दरारों को दुरुस्त किया जा सकेगा। जब फ़ोन की प्ले-लिस्ट से जगजीत सिंह अनहद राग सुनाते हैं। दूर ब्रह्मांड की वो आवाज़ जो हमारे भीतर भी बसती है, जिससे सुनने के लिए कई यत्न करने पड़ते हैं, उसे वे यूं ही सुना देते हैं और किसी ऋषि की शांति शिराओं में दौड़ पड़ती है।
भारी आवाज़ - जिसमें ह्रदय को रुई के फाहे के समान हल्का करे देने की ताकत है। जैसे सारी बात निचोड़ कर अब निशब्द की ओर दौड़ पड़ता है दिमाग़। जगजीत सिंह को पहले मौज में सुनते थे लेकिन वे ऐसे कलाकार हैं जो व्यक्ति की उम्र के साथ-साथ और भी गहरे समझ में आने लगते हैं। कितने ही ग़ज़लगो हुए जिनके शब्द जगजीत सिंह के गले में पहुंच तक अमर हो गए, एक उसी ग़ज़ल ने उन्हें घर-घर पहुंचा दिया।
ये दिन बसंत के ही हैं, बसंत की ही एक सुबह जगजीत सिंह का जन्म हुआ था। वे हमारे बीच होते तो और कई ग़ज़ल कहने वाले संगीतबद्ध हो जाते। बसंत के दिनों में एक आवाज़ जो पृथ्वी को मिली था, आज भी किसी बयार की तरह ही शीतल।
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