शमशेर बहादुर सिंह का जीवन सहजता की मिसाल है। जैसा जीवन उन्होंने जिया वैसा ही उन्होंने लिखा। उनके अनुभव का सूत्र पकड़ में आ जाए तो दुरूह जान पड़ने वाली कविता भी खुल जाती है। लेकिन वे मानते थे, कला कैलेंडर की चीज़ नहीं है। इसलिए अपने अनुभव का निजीपन, जहां तक हो सके, उसे खुलने से रोकते थे।
"कबूतरों ने एक गजल गुनगुनायी...
मैं समझ न सका, रदीफ-काफिये क्या थे,
इतना खफीफ, इतना हलका, इतना मीठा
उनका दर्द था।
आसमान में गंगा की रेत आईने की तरह हिल रही है।
मैं उसी में कीचड़ की तरह सो रहा हूँ
और चमक रहा हूँ कहीं...
न जाने कहाँ।"
फिर भी शमशेर सहज थे, सरल नहीं। सरलता तो कभी-कभी नासमझी से भरी होती है। सहजता जीवन का ताप सहकर आती है। कबीर उसे सहज साधना कहते थे। शमशेर को भी साधना से ही सहजता हासिल हुई।
शमशेर पर अंग्रेज़ी कवि एज़रा पाउंड का ख़ासा प्रभाव था और निराला उनके प्रिय कवि थे। उन्हें याद करते हुए शमशेर ने लिखा था,
भूल कर जब राह
जब जब राह
भटका मैं
तुम्हीं झलके हे महाकवि
सघन तम की आंख बन मेरे लिए
शमशेर का जन्म 13 जनवरी 1911 को देहरादून में हुआ. 18 साल की उम्र में उनकी शादी हुई. इसके छह साल बाद ही उनकी पत्नी का देहांत हो गया. काल की इस घटना से 24 साल की उम्र में उनकी ज़िंदगी में एक ख़ालीपन उभरा लेकिन उन्होंने इसे अपनी शक्ति का स्रोत बनाया और अपनी कविताओं में ज़िंदा रखा।
राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित पुस्तक शमशेर बहादुर सिंह की प्रतिनिधि कविताएं में हिंदी के वरिष्ठ आलोचक नामवर सिंह ने लिखा है, “शमशेर के लिए मृत्यु ख़्याल नहीं, हक़ीक़त है। प्रेम की तीव्र अनुभूति के क्षण में भी साक्षात् उपस्थित जैसे अंग्रेज़ी के कवि कीट्स की कविताओं में मौजूद रहती है।
प्रेम और मृत्यु। आस-पास, साथ-साथ। शमशेर के लिए मृत्यु स्वयं काल है जिससे कतराकर निकल जाना गवारा नहीं है कवि को। उनकी रचना, ‘काल, तुझसे होड़ है मेरी: अपराजित तू- तुझमें अपराजित मैं वास करूं।‘ यह कला की काल से होड़ है। इस होड़ से ही शमशेर ने कालजयी रचनाएं की हैं।“
हम अपने ख़याल को सनम समझे थे,
अपने को ख़याल से भी कम समझे थे!
होना था- समझना न था कुछ भी, शमशेर,
होना भी कहाँ था वह जो हम समझे थे!
शमशेर के मुख्य काव्य संग्रह हैं- 'कुछ कविताएँ, 'कुछ और कविताएँ, 'इतने पास अपने, 'चुका भी नहीं हूँ मैं, 'बात बोलेगी, 'उदिता’ और 'काल तुझसे होड़ है मेरी’। शमशेर को कबीर सम्मान, साहित्य अकादमी पुरस्कार, मैथिलीशरण गुप्त सम्मान और कबीर सम्मान से नवाज़ा गया।
बात बोलेगी,
हम नहीं।
भेद खोलेगी
बात ही।
सत्य का मुख
झूठ की आँखें
क्या-देखें!
सत्य का रूख़
समय का रूख़ हैः
अभय जनता को
सत्य ही सुख है
सत्य ही सुख।
नामवर जी कहते हैं, “शमशेर की आत्मा ने अपनी अभिव्यक्ति का जो एक प्रभावशाली भवन अपने हाथों तैयार किया है उसमें जाने से मुक्तिबोध को भी डर लगता था- ‘उसकी गंभीर प्रयत्नसाध्य पवित्रता के कारण’। शमशेर की कितनी कविताएं सिर्फ़ व्यक्तियों पर हैं। इतने व्यक्तियों पर शायद ही किसी कवि ने कविताएं लिखी हों।
ये व्यक्ति क्या वे सूत्र हैं जिनके माध्यम से वे दुनिया के इंसानों से जुड़ने की कोशिश करते हैं? समाज अमूर्त संकल्पना है। ऐसे अमूर्त समाज से जुड़नेवाले कवि और होंगे। शमशेर के लिए तो जैसे हाड़-मांस के जीते-जागते इंसान की समाज हैं जिनका अपना चेहरा है, अपनी पहचान है, अपना सुख-दुख है, छोटा ही सही पर सच्चा।
शमशेर ऐसे ही व्यक्तियों को ‘अपने पास’ इतने पास खींच लाते हैं कि उनके व्यक्तित्व का हिस्सा बन जाए और इस तरह अंत में एक कविता – मुजस्सिम कविता! अपनी
एक कविता की शुरूआत शमशेर ने इन पंक्तियों से की है,
मैं उर्दू और हिंदी का दोआब हूं
मैं वह आईना हूं जिसमें आप हैं
बीबीसी हिंदी के वरिष्ठ पत्रकार रेहान फ़ज़ल अपनी एक रिपोर्ट में लिखा है कि शमशेर ने अपने जीवन के अंतिम नौ बरस उन पर शोध कर रही रंजना अरगड़े के यहां गुज़ारे. रंजना अरगड़े 2011 में अहमदाबाद में गुजरात विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग की अध्यक्षा रह चुकी हैं।
रंजना अरगड़े उनके अंतिम दिनों को याद करती हैं जब 12 मई 1993 को उन्होंने दुनिया को अलविदा कहा, "जब हार्ट अटैक आया तो अस्पताल में लगभग 72 घंटे से भी कम रहे. वह बहुत पीड़ा का समय तो नहीं था। लेकिन उन्हें शायद अंदाज़ा हो गया था कि अब जाने का समय आ गया है। मैं उनसे पूछ रही थी कि वे क्या सुनना चाहेंगे ग़ालिब या कुछ और लेकिन वे इनकार में सिर हिलाते रहे।"
रंजना याद करती हैं, "आख़िर में शमशेर ने गायत्री मंत्र सुनने की इच्छा जताई। उज्जैन में जब वे थे तो संस्कृत की छूटी हुई कड़ी वहीं हाथ आ गई थी। मैं गायत्री मंत्र बोल रही थी और वे साथ में बोलते जा रहे थे। मंत्र बोलते-बोलते जब वे चुप हो गए तो मैं जान गई थी कि अब वे नहीं हैं।"
ईमान गड़बड़ी में है दिल के हिसाब में
लिखा हुआ कुछ और मिला है किताब में
दिल जिनमें ढूंढता था कभी अपनी दास्ताँ
वो सुख़ियाँ कहाँ हैं मुहब्बत के बाब में!
ऐ दिलेनवाज़ पहलू ही जब दिल के और हों,
क्या ख़िलवतों में लुत्फ़ धरा क्या हिजाब में!
उस आस्ताँ तक हमको बहारों में ले के जाओ
जिस पर कोई शहीद हुआ हो शबाब में!
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13 घंटे पहले
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