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मजरूह सुल्तानपुरी: मुझे सहल हो गईं मंज़िलें वो हवा के रुख़ भी बदल गए

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मुझे सहल हो गईं मंज़िलें वो हवा के रुख़ भी बदल गए
तिरा हाथ हाथ में आ गया कि चराग़ राह में जल गए

वो लजाए मेरे सवाल पर कि उठा सके न झुका के सर
उड़ी ज़ुल्फ़ चेहरे पे इस तरह कि शबों के राज़ मचल गए

वही बात जो वो न कह सके मिरे शेर-ओ-नग़्मा में आ गई
वही लब न मैं जिन्हें छू सका क़दह-ए-शराब में ढल गए

वही आस्ताँ है वही जबीं वही अश्क है वही आस्तीं
दिल-ए-ज़ार तू भी बदल कहीं कि जहाँ के तौर बदल गए

तुझे चश्म-ए-मस्त पता भी है कि शबाब गर्मी-ए-बज़्म है
तुझे चश्म-ए-मस्त ख़बर भी है कि सब आबगीने पिघल गए

मिरे काम आ गईं आख़िरश यही काविशें यही गर्दिशें
बढ़ीं इस क़दर मिरी मंज़िलें कि क़दम के ख़ार निकल गए

 
3 सप्ताह पहले

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