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Bihar Politics: पिछड़ों का उभार रोकने की कोशिश, कांग्रेस ने खोई जमीन; कर्पूरी के आरक्षण विस्फोट से बदली सियासत

Rajkishor राजकिशोर
Updated Thu, 30 Oct 2025 07:53 AM IST
सार

बिहार के सियासी चौसर को देखते हुए कहना गलत नहीं होगा कि पिछड़ों का उभार रोकने की कोशिश में कांग्रेस ने जमीन खो दी है। इस रिपोर्ट में जानिए, कैसे पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर के दौर में आरक्षण विस्फोट से सियासत बदली। कांग्रेस ने पिछड़ों, दलितों व मुस्लिमों को दूर रखने की कीमत चुकाई है। पढ़ें बिहार की राजनीति से जुड़ी ये रिपोर्ट

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Bihar Politics Congress lost ground attempt to halt backward classes rise change after Karpoori Thakur Quota
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 - फोटो : अमर उजाला ग्राफिक्स
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विस्तार
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लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी इन दिनों पिछड़ों, दलितों और मुस्लिमों की भागीदारी पर खूब बोल रहे हैं। मोदी सरकार पर हमलावर भी हैं, लेकिन बिहार में इन्हीं तीनों वर्गों को सत्ता से दूर रखने की पुरानी रणनीति ने ही कांग्रेस को राज्य की राजनीति में समेटकर रख दिया। दरअसल, बिहार की राजनीति में कर्पूरी ठाकुर का उदय उस दशक की कहानी है,जब सत्ता अगड़ों की गुटबाजी और अस्थिरता के दलदल में धंस चुकी थी।


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1967 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का पतन हुआ,और उन्हीं के बागी नेता महामाया प्रसाद सिन्हा ने कांग्रेस की सत्ता को उखाड़ फेंका। नई बनी पहली गैर-कांग्रेसी सरकार में अति पिछ़ड़ा वर्ग में आने वाले नाई समुदाय से कर्पूरी ठाकुर उपमुख्यमंत्री बने। यह भविष्य में पिछड़ों के राजनीतिक उत्थान का पहला स्पष्ट संकेत था। इस संकेत को पढ़ने के बजाय, कांग्रेस ने 1980-90 के दशक में पांच सवर्ण मुख्यमंत्री देकर इस नए उभार को जो रोकने की कोशिश की, उसका खामियाजा वह आज तक भुगत रही है।

बीपी मंडल और पांच दिन के सीएम
महामाया प्रसाद की सरकार, जिसकी जड़ें कमजोर गठबंधन पर टिकी थीं, जल्द ही कांग्रेस की गुटबाजी की शिकार हो गई। केबी सहाय ने अपनी हार का बदला लेते हुए सरकार गिरा दी। इसके बाद,जनवरी 1968 में सत्ता के लिए 'गजब'की राजनीति शुरू हुई।

महामाया प्रसाद के इस्तीफे के बाद, केबी सहाय अपने भरोसेमंद नेता बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल को मुख्यमंत्री बनाना चाहते थे। बी.पी. मंडल तब सांसद थे, इसलिए अंतरिम सीएम की तलाश हुई। शोषित दल के सतीश प्रसाद सिंह कुशवाहाने यह ज़िम्मेदारी संभाली और केवल पाँच दिनों के लिए मुख्यमंत्री बने। यह इस बात का स्पष्ट संकेत था कि अगड़ी जातियों को यह लगने लगा था कि पिछड़ों को साथ में लिए बिना सियासत में टिके रहना मुश्किल है। सतीश प्रसाद सिंह के इस्तीफे के बाद बीपी मंडल जो यादव जाति से थे, वह बिहार के नए मुख्यमंत्री बने,लेकिन वह केवल 50 दिनों तक ही कुर्सी पर टिक पाए।

इस बीच, केंद्रीय कांग्रेस में इंदिरा गांधी बनाम पुराने नेताओं की गुटबाजी चरम पर थी। कांग्रेस पर्दे के पीछे से सरकार चलवा रही थी, लेकिन कोई भी सरकार टिक नहीं पाई। 1968 में पहली बार राष्ट्रपति शासन लगा। 1969 में मध्यावधि चुनाव हुआ और कांग्रेस और कमजोर हुई। 1970 में, सोशलिस्ट पार्टी के समर्थन से मुख्यमंत्री बनने की बारी कर्पूरी ठाकुर की आई।

हालांकि, उस समय इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाला कांग्रेस गुट मजबूत हो रहा था,जिसके चलते कर्पूरी ठाकुर भी केवल साढ़े पाँच महीने ही सीएम पद पर रह पाए। इसके बाद भोला पासवान शास्त्री तीसरी बार सीएम बने। यह राजनीतिक अस्थिरता ही थी कि 5वीं विधानसभा ने तीन साल में पांच मुख्यमंत्री देखे, और यह बिहार की राजनीति में  आया राम गया राम का दशक था।  

आरक्षण के दांव से हिला सिंहासन
1977 में आपातकाल के बाद माहौल बदला। केंद्र में कांग्रेस की सत्ता जाने का असर बिहार में भी हुआ, और राज्य में जनता पार्टी की सरकार बनी। इस बार कर्पूरी ठाकुर दूसरी बार बिहार के मुख्यमंत्री बने। इस बार कर्पूरी ठाकुर कुछ अलग ही सोचकर आए थे। उन्होंने सैकड़ों उपजातियों में बंटी पिछड़ी जातियों को एकजुट करने के लिए नवंबर 1978 में बिहार की सरकारी सेवाओं में उनके लिए 26 फीसदी आरक्षण का प्रावधान कर दिया। यह साधारण आरक्षण नहीं था, यह बिहार की राजनीति का सबसे बड़ा विस्फोटक क्षण था,जिसे आज 'कर्पूरी फॉर्मूला'के नाम से जाना जाता है।

नवंबर 1978 में कर्पूरी ठाकुर ने सरकारी सेवाओं में कुल 26 फीसदी आरक्षण का प्रावधान किया। इस फॉर्मूले में सबसे बड़ा क्रांतिकारी दाँव था ओबीसी का विभाजन। इसके तहत पिछड़े वर्ग (ओबीसी) को 12% और अत्यंत पिछड़े वर्ग (ईबीसी) को 8% आरक्षण दिया गया। कर्पूरी ठाकुर ने अति पिछड़े वर्ग को अलग से आरक्षण देकर ओबीसी के भीतर मौजूद आंतरिक असमानता को राजनीतिक रूप से स्वीकार किया। इसका अर्थ है कि आज बिहार में जो पिछड़ा और अति पिछड़ा के बीच सामाजिक न्याय और हिस्सेदारी का विमर्श है, वह सीधे तौर पर कर्पूरी ठाकुर की देन है। इसके अलावा,उन्होंने सभी वर्गों की महिलाओं के लिए 3% और पहली बार, आर्थिक रूप से पिछड़े सवर्णों के लिए भी 3% आरक्षण का प्रावधान किया था।

हालांकि, अगड़ी जातियों ने इस फैसले का खुलकर विरोध किया। जनता सरकार गठबंधन से बनी थी, जिसके चलते, करीब 1 साल 10 महीने बाद ही कर्पूरी ठाकुर को मुख्यमंत्री की कुर्सी से हाथ धोना पड़ा। उनकी जगह रामसुंदर दास (दलित) मुख्यमंत्री बनाए गए, लेकिन वह भी एक साल नहीं टिक पाए और फिर राष्ट्रपति शासन लगा।

कर्पूरी-जगन्नाथ धुरी व कांग्रेस का पतन
1980 के मध्यावधि चुनाव में इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस फिर सत्ता में लौटी और जगन्नाथ मिश्र दूसरी बार मुख्यमंत्री बने। 80 के दशक में बिहार की सियासत की नब्ज पर दो नेताओं कर्पूरी ठाकुर और जगन्नाथ मिश्र की जबरदस्त पकड़ थी। कर्पूरी ठाकुर के आरक्षण वाले दाँव के बाद,कांग्रेस ने अगड़ी जातियों द्वारा किए गए विरोध को भांपते हुए,अपनी सत्ता के शीर्ष पर फिर से अगड़ी जातियों खासकर ब्राह्मण और क्षत्रिय का वर्चस्व स्थापित कर दिया।

जगन्नाथ मिश्र ने 1975 से ही बिहार कांग्रेस की धुरी बना ली थी, लेकिन 1983 में राजीव गांधी से अनबन और आंतरिक गुटबाजी जिसमें भूमिहार नेता ललितेश्वर प्रसाद शाही का विरोध प्रमुख था, उसके चलते उन्हें हटना पड़ा। इसके बाद, क्षत्रिय चंद्रशेखर सिंह और फिर बिंदेश्वरी दुबे, भागवत झा आजाद, और सत्येंद्र नारायण सिन्हा जैसे अगड़ी जाति के नेता एक के बाद एक सीएम बने। 1980 से 1990 के बीच कांग्रेस ने जिन पाँच नेताओं को सीएम बनाया, उनमें कोई भी पिछड़ी, दलित या मुस्लिम नहीं था।

कांग्रेस की पिछड़ों को सत्ता के शीर्ष से दूर रखने की यह रणनीति ही बिहार में उसकी सियासी जमीन उखाड़ फेंकने का कारण बनी। कर्पूरी ठाकुर के सामाजिक न्याय और आरक्षण के दांव ने बिहार में पिछड़ी राजनीति की ऐसी मजबूत नींव रखी, जिस पर आने वाले 35 वर्षों से अधिक समय तक लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार के रूप में सत्ता की बुलंद इमारत खड़ी हुई है।

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