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Climate Change: दुनिया के 10% अमीरों ने बढ़ाई धरती की तपिश, आम इंसान से 26 गुना ज्यादा कार्बन उत्सर्जन
अमर उजाला नेटवर्क
Published by: शुभम कुमार
Updated Sun, 11 May 2025 04:46 AM IST
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सार
एक अंतरराष्ट्रीय अध्ययन के अनुसार, वैश्विक तापमान में दो-तिहाई वृद्धि के लिए दुनिया के शीर्ष 10% अमीर लोग जिम्मेदार हैं। उनकी जीवनशैली और निवेशों ने औसत व्यक्ति से 26 गुना अधिक कार्बन उत्सर्जन किया, जिससे हीटवेव, सूखा और तापमान वृद्धि बढ़ी।

जलवायु परिवर्तन
- फोटो : Freepic
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विस्तार
जलवायु परिवर्तन केवल पर्यावरणीय संकट नहीं है, यह सामाजिक और आर्थिक असमानताओं को भी उजागर करता है। एक अंतरराष्ट्रीय अध्ययन से पता चला है कि वैश्विक तापमान में दो-तिहाई वृद्धि के लिए दुनिया के सबसे अमीर 10% लोग जिम्मेदार हैं। 1990 से अब तक बढ़ी गर्मी, हीटवेव और सूखे जैसी चरम जलवायु स्थितियों के पीछे इन उच्च आय वर्गों की जीवनशैली और निवेश पैटर्न एक बड़ा कारण है।
नेचर क्लाइमेट चेंज में प्रकाशित अध्ययन में शोधकर्ताओं ने आय आधारित कार्बन उत्सर्जन का गहराई से विश्लेषण किया है। रिपोर्ट बताती है कि शीर्ष 10% अमीरों ने औसत व्यक्ति की तुलना में 26 गुना अधिक उत्सर्जन किया है, जिससे वैश्विक चरम तापमान घटनाओं में भारी वृद्धि हुई है। उदाहरण के लिए अमेजन वर्षावनों में सूखे की घटनाएं 17 गुना तक बढ़ गई हैं।
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क्या कहना है विशेषज्ञों का?
विशेषज्ञों का कहना है कि ये चरम प्रभाव केवल समग्र वैश्विक उत्सर्जन का नतीजा नहीं हैं, बल्कि सीधे तौर पर अमीर वर्ग की जीवनशैली जैसे कि लक्जरी यात्रा, ऊर्जा-गहन घर और निवेश पोर्टफोलियो से जुड़ी हुई हैं। फ्रांस अमेरिका, जर्मनी, चीन, डेनमार्क न्यूजीलैंड, सिंगापुर और हांगकांग जैसे देशों में सबसे अमीर लोगों के उत्सर्जन के ग्लोबल वार्मिंग बढ़ रही है। यही नहीं इनका सबसे बड़ा असर उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों जैसे अमेजन, दक्षिण-पूर्व एशिया और अफ्रीका पर पड़ा है जो कि ऐतिहासिक रूप से न्यूनतम उत्सर्जन करने वाले क्षेत्र रहे हैं।
सामाजिक और आर्थिक संरचना में बदलाव की जरूरत
रिपोर्ट के अनुसार, यदि पूरी दुनिया ने सबसे गरीब 50% लोगों की तरह जीवनशैली अपनाई होती, तो तापमान में मौजूदा वृद्धि लगभग नगण्य होती। इससे यह स्पष्ट होता है कि जलवायु संकट से निपटने के लिए केवल तकनीकी समाधान पर्याप्त नहीं हैं। इसके लिए सामाजिक और आर्थिक संरचना में भी बदलाव की जरूरत है।
ये भी पढ़ें:- Congress: 'संविधान को खारिज करने वालों के वंशज आज उसका बचाव कर रहे', शशि थरूर ने RSS पर साधा निशाना
इसके लिए लक्षित नीति निर्माण जैसे कार्बन टैक्स, प्रगतिशील कर प्रणाली, और पोल्यूटर-पे सिद्धांत से जलवायु कार्रवाई में प्रभावशाली बदलाव लाया जा सकता है। पोल्यूटर-पे सिद्धांत (पीपीपी) एक पर्यावरणीय सिद्धांत है जिसके अनुसार जो व्यक्ति, उद्योग या संस्था प्रदूषण फैलाता है उसे ही उस प्रदूषण की सफाई और उससे होने वाले नुकसान की भरपाई का खर्च वहन करना चाहिए।

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क्या कहना है विशेषज्ञों का?
विशेषज्ञों का कहना है कि ये चरम प्रभाव केवल समग्र वैश्विक उत्सर्जन का नतीजा नहीं हैं, बल्कि सीधे तौर पर अमीर वर्ग की जीवनशैली जैसे कि लक्जरी यात्रा, ऊर्जा-गहन घर और निवेश पोर्टफोलियो से जुड़ी हुई हैं। फ्रांस अमेरिका, जर्मनी, चीन, डेनमार्क न्यूजीलैंड, सिंगापुर और हांगकांग जैसे देशों में सबसे अमीर लोगों के उत्सर्जन के ग्लोबल वार्मिंग बढ़ रही है। यही नहीं इनका सबसे बड़ा असर उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों जैसे अमेजन, दक्षिण-पूर्व एशिया और अफ्रीका पर पड़ा है जो कि ऐतिहासिक रूप से न्यूनतम उत्सर्जन करने वाले क्षेत्र रहे हैं।
सामाजिक और आर्थिक संरचना में बदलाव की जरूरत
रिपोर्ट के अनुसार, यदि पूरी दुनिया ने सबसे गरीब 50% लोगों की तरह जीवनशैली अपनाई होती, तो तापमान में मौजूदा वृद्धि लगभग नगण्य होती। इससे यह स्पष्ट होता है कि जलवायु संकट से निपटने के लिए केवल तकनीकी समाधान पर्याप्त नहीं हैं। इसके लिए सामाजिक और आर्थिक संरचना में भी बदलाव की जरूरत है।
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इसके लिए लक्षित नीति निर्माण जैसे कार्बन टैक्स, प्रगतिशील कर प्रणाली, और पोल्यूटर-पे सिद्धांत से जलवायु कार्रवाई में प्रभावशाली बदलाव लाया जा सकता है। पोल्यूटर-पे सिद्धांत (पीपीपी) एक पर्यावरणीय सिद्धांत है जिसके अनुसार जो व्यक्ति, उद्योग या संस्था प्रदूषण फैलाता है उसे ही उस प्रदूषण की सफाई और उससे होने वाले नुकसान की भरपाई का खर्च वहन करना चाहिए।