{"_id":"69382d988b5720b5c7095abc","slug":"maharashtra-bombay-high-court-says-standing-train-door-is-not-negligence-compensation-cannot-be-denied-2025-12-09","type":"story","status":"publish","title_hn":"Maharashtra: 'ट्रेन के दरवाजे पर खड़ा होना लापरवाही नहीं', हाईकोर्ट ने कहा- मुआवजे से वंचित नहीं कर सकते","category":{"title":"India News","title_hn":"देश","slug":"india-news"}}
Maharashtra: 'ट्रेन के दरवाजे पर खड़ा होना लापरवाही नहीं', हाईकोर्ट ने कहा- मुआवजे से वंचित नहीं कर सकते
न्यूज डेस्क, अमर उजाला, मुंबई
Published by: हिमांशु चंदेल
Updated Tue, 09 Dec 2025 07:39 PM IST
सार
Bombay High Court: बॉम्बे हाईकोर्ट ने कहा कि मुंबई लोकल में पीक आवर में दरवाज़े पर खड़े होकर सफर करना यात्री की लापरवाही नहीं माना जा सकता। भैयंदर से मरीन लाइन्स जाते समय 2005 में हादसे में मारे गए यात्री के परिवार को मिला मुआवजा बरकरार रखा गया।
विज्ञापन
बॉम्बे हाईकोर्ट
- फोटो : एएनआई
विज्ञापन
विस्तार
मुंबई में रोजाना लाखों लोग लोकल ट्रेन से सफर करते हैं और भीड़ के कारण कई यात्री दरवाज़े के पास खड़े होकर जान जोखिम में डालकर यात्रा करते हैं। इसी हकीकत को उजागर करते हुए बॉम्बे हाईकोर्ट ने बड़ा फैसला सुनाया है। अदालत ने साफ कहा कि पीक आवर में दरवाज़े पर खड़े होना मजबूरी है, इसे यात्री की लापरवाही नहीं माना जा सकता। कोर्ट ने रेलवे द्वारा दी गई दलीलों को खारिज करते हुए पीड़ित परिवार को मिला मुआवज़ा बरकरार रखा।
जस्टिस जितेंद्र जैन की एकल पीठ ने कहा कि वसई-विरार और चर्चगेट रूट की ट्रेनें सुबह के समय बेहद भरी होती हैं। ऐसी स्थिति में यात्री के पास खड़े होने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता। अदालत ने कहा कि हकीकत यह है कि कई बार प्लेटफॉर्म पर कदम रखने की भी जगह नहीं होती, जिससे यात्रियों को दरवाज़े पर ही टिकना पड़ता है। इसलिए ऐसी मजबूरी को लापरवाही बताकर मुआवज़े से वंचित नहीं किया जा सकता।
पीक आवर की सच्चाई को समझना होगा
कोर्ट ने इस बात को स्वीकार किया कि 2005 से लेकर आज तक यात्रा की यह मुश्किलें नहीं बदली हैं। अदालत ने कहा कि भैयंदर स्टेशन पर ट्रेन में घुसना बेहद मुश्किल होता है, इसलिए दरवाज़े पर खड़े यात्रियों को दोषी ठहराने की दलील तर्कसंगत नहीं है। कोर्ट ने कहा कि “अगर किसी को काम पर जाना है और डिब्बे में जगह नहीं है, तो उसके पास इस जोखिम को स्वीकार करने के अलावा कोई चारा नहीं।” अदालत ने यह भी कहा कि ज़मीन पर मौजूद परेशानियों को नज़रअंदाज़ कर तर्क नहीं दिया जा सकता।
कानून भीड़ की मजबूरी को दंडनीय नहीं मानता
रेलवे ने तर्क दिया था कि दरवाज़े पर खड़े होकर यात्रा करना नियमों का उल्लंघन है और यह “अनटुवर्ड इंसीडेंट” की परिभाषा में नहीं आता। अदालत ने इसे भी खारिज कर दिया। कोर्ट ने कहा कि कानून में कहीं नहीं लिखा कि भीड़ के कारण दरवाज़े पर खड़े होने पर हादसा हो जाए तो उसे मुआवज़े से बाहर रखा जाए। अदालत ने माना कि यह एक अप्रत्याशित दुर्घटना है और परिवार को मुआवज़े का हक है।
टिकट न मिलने की दलील भी खारिज
रेलवे ने दावा किया कि मृतक के पास टिकट या पास नहीं मिला, इसलिए वह बोना फाइड पैसेंजर नहीं था। लेकिन अदालत ने कहा कि मृतक की पत्नी ने उनका लोकल ट्रेन पास और पहचान पत्र ट्रिब्यूनल में पेश किया था। यह पास असली पाया गया। अदालत ने कहा कि पास घर पर भूल जाना एक साधारण मानवीय गलती है और इससे परिवार मुआवज़े से वंचित नहीं किया जा सकता। अदालत ने कहा कि रेलवे ट्रिब्यूनल का आदेश बिलकुल सही था।
पीड़ित परिवारों को राहत
अंत में अदालत ने रेलवे की अपील को पूरी तरह से खारिज कर दिया और कहा कि ट्रिब्यूनल ने सही फैसले के आधार पर मुआवजा दिया था। हाईकोर्ट ने कहा कि इस तरह के मामलों में सरकार को यात्रियों की मजबूरी को समझना चाहिए, न कि उन्हें दोषी ठहराना चाहिए। अदालत ने साफ कर दिया कि भीड़भाड़ में दरवाज़े पर खड़े होकर यात्रा करना मुंबई की ज़मीनी सच्चाई है और इसे अपराध नहीं कहा जा सकता।
Trending Videos
जस्टिस जितेंद्र जैन की एकल पीठ ने कहा कि वसई-विरार और चर्चगेट रूट की ट्रेनें सुबह के समय बेहद भरी होती हैं। ऐसी स्थिति में यात्री के पास खड़े होने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता। अदालत ने कहा कि हकीकत यह है कि कई बार प्लेटफॉर्म पर कदम रखने की भी जगह नहीं होती, जिससे यात्रियों को दरवाज़े पर ही टिकना पड़ता है। इसलिए ऐसी मजबूरी को लापरवाही बताकर मुआवज़े से वंचित नहीं किया जा सकता।
विज्ञापन
विज्ञापन
पीक आवर की सच्चाई को समझना होगा
कोर्ट ने इस बात को स्वीकार किया कि 2005 से लेकर आज तक यात्रा की यह मुश्किलें नहीं बदली हैं। अदालत ने कहा कि भैयंदर स्टेशन पर ट्रेन में घुसना बेहद मुश्किल होता है, इसलिए दरवाज़े पर खड़े यात्रियों को दोषी ठहराने की दलील तर्कसंगत नहीं है। कोर्ट ने कहा कि “अगर किसी को काम पर जाना है और डिब्बे में जगह नहीं है, तो उसके पास इस जोखिम को स्वीकार करने के अलावा कोई चारा नहीं।” अदालत ने यह भी कहा कि ज़मीन पर मौजूद परेशानियों को नज़रअंदाज़ कर तर्क नहीं दिया जा सकता।
कानून भीड़ की मजबूरी को दंडनीय नहीं मानता
रेलवे ने तर्क दिया था कि दरवाज़े पर खड़े होकर यात्रा करना नियमों का उल्लंघन है और यह “अनटुवर्ड इंसीडेंट” की परिभाषा में नहीं आता। अदालत ने इसे भी खारिज कर दिया। कोर्ट ने कहा कि कानून में कहीं नहीं लिखा कि भीड़ के कारण दरवाज़े पर खड़े होने पर हादसा हो जाए तो उसे मुआवज़े से बाहर रखा जाए। अदालत ने माना कि यह एक अप्रत्याशित दुर्घटना है और परिवार को मुआवज़े का हक है।
टिकट न मिलने की दलील भी खारिज
रेलवे ने दावा किया कि मृतक के पास टिकट या पास नहीं मिला, इसलिए वह बोना फाइड पैसेंजर नहीं था। लेकिन अदालत ने कहा कि मृतक की पत्नी ने उनका लोकल ट्रेन पास और पहचान पत्र ट्रिब्यूनल में पेश किया था। यह पास असली पाया गया। अदालत ने कहा कि पास घर पर भूल जाना एक साधारण मानवीय गलती है और इससे परिवार मुआवज़े से वंचित नहीं किया जा सकता। अदालत ने कहा कि रेलवे ट्रिब्यूनल का आदेश बिलकुल सही था।
पीड़ित परिवारों को राहत
अंत में अदालत ने रेलवे की अपील को पूरी तरह से खारिज कर दिया और कहा कि ट्रिब्यूनल ने सही फैसले के आधार पर मुआवजा दिया था। हाईकोर्ट ने कहा कि इस तरह के मामलों में सरकार को यात्रियों की मजबूरी को समझना चाहिए, न कि उन्हें दोषी ठहराना चाहिए। अदालत ने साफ कर दिया कि भीड़भाड़ में दरवाज़े पर खड़े होकर यात्रा करना मुंबई की ज़मीनी सच्चाई है और इसे अपराध नहीं कहा जा सकता।