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Wildlife: वन क्षेत्र में आधारभूत विकास के लिए वन्यजीव मंजूरी की जरूरत नहीं, जनजातीय मंत्रालय ने किया साफ
न्यूज डेस्क, अमर उजाला, नई दिल्ली
Published by: नितिन गौतम
Updated Tue, 08 Jul 2025 11:31 AM IST
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सार
शोधकर्ता सी आर बिजॉय ने कहा कि पर्यावरण मंत्रालय के 2020 के पत्र का वन अधिकारियों द्वारा व्यापक रूप से उपयोग किया जाता है और वन अधिकार अधिनियम की धारा 3(2) के तहत जंगल के गांवों में बुनियादी सुविधाओं को रोकने के लिए इस्तेमाल किया जाता है।

जंगल में वन्यजीव
- फोटो : पीटीआई
विस्तार
जनजातीय मामलों के मंत्रालय ने पर्यावरण मंत्रालय को पत्र लिखकर साफ किया है कि वन अधिकार कानून के तहत वन भूमि में आधारभूत विकास जैसे स्कूल, आंगनवाड़ी और सड़कों आदि के निर्माण के लिए वन्यजीव मंजूरी लेना जरूरी नहीं है। हालांकि इस आधारभूत विकास के लिए ग्राम सभा की सिफारिश जरूरी है। 2 जुलाई को एक कार्यालय ज्ञापन जारी किया गया था, जिसमें पर्यावरण मंत्रालय ने वन अधिकार कानून की धारा 3(2) पर विस्तृत स्पष्टीकरण मांगा था, जो जंगलों में रहने वाली अनुसूचित जनजातियों और अन्य पारंपरिक वन निवासियों (ओटीएफडी) के फायदे के लिए स्कूल, सड़क, स्वास्थ्य केंद्र और सिंचाई परियोजनाओं जैसी बुनियादी सुविधाओं के लिए वन भूमि के रूपांतरण की अनुमति देता है।
पर्यावरण मंत्रालय ने कहा था- वन्यजीव मंजूरी जरूरी होगी
अक्टूबर 2020 में जारी एक पत्र में पर्यावरण मंत्रालय ने कहा था कि एफआरए की धारा 13, कहती है कि अधिनियम की धारा 3(2) को लागू करने के लिए वन्यजीव मंजूरी की आवश्यकता होगी। पर्यावरण मंत्रालय के पत्र में कहा गया था कि वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 के प्रावधान एफआरए की धारा 3(2) से अप्रभावित रहते हैं। अब जनजातीय मामलों के मंत्रालय ने साफ किया है कि वन्यजीव अधिनियम संवैधानिक अधिकारों में निहित है। साथ ही पांचवीं और छठी अनुसूची में भी शामिल है, जो जनजातीय अधिकारियों की सुरक्षा करती है।
ये भी पढ़ें- मुख्यमंत्री बिहार के: इस सीएम को कभी कहा गया जमींदारों का दुश्मन, छात्र आंदोलन में चली गोली ने छीन ली कुर्सी
नियमों को आधार बनाकर आदिवासी गांवों का नहीं हुआ विकास
जनजातीय मंत्रालय ने सुप्रीम कोर्ट के दो फैसलों का जिक्र किया, साथ ही इस बात पर जोर दिया कि वन्यजीव अधिकार कानून पर्यावरणीय चिंताओं और आदिवासी अधिकारों के लिए कानूनी साधन है। शोधकर्ता सी आर बिजॉय ने कहा कि पर्यावरण मंत्रालय के 2020 के पत्र का वन अधिकारियों द्वारा व्यापक रूप से उपयोग किया जाता है और वन अधिकार अधिनियम की धारा 3(2) के तहत जंगल के गांवों में बुनियादी सुविधाओं को रोकने के लिए इस्तेमाल किया जाता है, जबकि राज्यों को कोई औपचारिक आदेश जारी नहीं किया गया है। वन अधिकार विशेषज्ञों का दावा है कि वन गांवों को लंबे समय से स्कूल, सड़क और स्वास्थ्य केंद्र जैसी सेवाओं से वंचित रखा गया है। वन अधिकारी अक्सर ऐसी परियोजनाओं को यह कहकर रोक देते हैं कि उन्हें कानूनी रूप से अनुमति नहीं है या वन संरक्षण कारणों का हवाला देते हैं। नतीजतन, ये गांव देश में सबसे उपेक्षित गांवों में से हैं।
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पर्यावरण मंत्रालय ने कहा था- वन्यजीव मंजूरी जरूरी होगी
अक्टूबर 2020 में जारी एक पत्र में पर्यावरण मंत्रालय ने कहा था कि एफआरए की धारा 13, कहती है कि अधिनियम की धारा 3(2) को लागू करने के लिए वन्यजीव मंजूरी की आवश्यकता होगी। पर्यावरण मंत्रालय के पत्र में कहा गया था कि वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 के प्रावधान एफआरए की धारा 3(2) से अप्रभावित रहते हैं। अब जनजातीय मामलों के मंत्रालय ने साफ किया है कि वन्यजीव अधिनियम संवैधानिक अधिकारों में निहित है। साथ ही पांचवीं और छठी अनुसूची में भी शामिल है, जो जनजातीय अधिकारियों की सुरक्षा करती है।
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नियमों को आधार बनाकर आदिवासी गांवों का नहीं हुआ विकास
जनजातीय मंत्रालय ने सुप्रीम कोर्ट के दो फैसलों का जिक्र किया, साथ ही इस बात पर जोर दिया कि वन्यजीव अधिकार कानून पर्यावरणीय चिंताओं और आदिवासी अधिकारों के लिए कानूनी साधन है। शोधकर्ता सी आर बिजॉय ने कहा कि पर्यावरण मंत्रालय के 2020 के पत्र का वन अधिकारियों द्वारा व्यापक रूप से उपयोग किया जाता है और वन अधिकार अधिनियम की धारा 3(2) के तहत जंगल के गांवों में बुनियादी सुविधाओं को रोकने के लिए इस्तेमाल किया जाता है, जबकि राज्यों को कोई औपचारिक आदेश जारी नहीं किया गया है। वन अधिकार विशेषज्ञों का दावा है कि वन गांवों को लंबे समय से स्कूल, सड़क और स्वास्थ्य केंद्र जैसी सेवाओं से वंचित रखा गया है। वन अधिकारी अक्सर ऐसी परियोजनाओं को यह कहकर रोक देते हैं कि उन्हें कानूनी रूप से अनुमति नहीं है या वन संरक्षण कारणों का हवाला देते हैं। नतीजतन, ये गांव देश में सबसे उपेक्षित गांवों में से हैं।
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