सब पर झाड़ू चलाकर आया 'दिल्ली का नायक'
हाथ में झाडू लिए एक अराजक नायक दिल्ली की जनता के दिल में जा बैठा है। पूरे पांच साल के लिए। दिल्ली चुनाव में एक अप्रत्याशित लहर के बीच अरविंद केजरीवाल ने जिस तरह से बहुमत प्राप्त किया है वो निस्संदेह भारतीय राजनीति में दूसरी पार्टियों के लिए एक बड़ा सबक है।
महज दो साल के राजनीतिक अनुभव के बल पर अरविंद केजरीवाल ने भारतीय राजनीति में एक अप्रत्याशित जगह बनाई है। केजरीवाल ने साबित किया है कि ज्यादा अनुभव के बल पर सीट पाने की अपेक्षा जनता को प्रभावित करने की कला आनी चाहिए।
केजरीवाल को 'धरनों का मास्टर' कहा गया और कभी अवसरवादी। कभी उन्हें 'भगोड़ा' कहा गया तो कभी 'यूटर्न में माहिर'। लेकिन केजरीवाल को इन आरोपों से कोई मलाल नहीं। बदनाम हुए तो क्या नाम न होगा की तर्ज पर केजरीवाल ने हर हमले का जवाब जनता के बीच देने की कोशिश की और जनता भी कहीं न कहीं मान बैठी है कि बंदा कुछ तो करेगा ही।
झाड़ू वाला नायक
लोकपाल आंदोलन के शिल्पी के तौर पर कभी मशहूर हुए केजरीवाल ने जब आम आदमी पार्टी का गठन किया तो राजनीतिक पार्टियों ने उन्हें एक नए लोकल कैडर की तरह देखा। भाजपा और कांग्रेस ने तो केजरीवाल को महत्व भी नहीं दिया। लेकिन यही केजरीवाल 2013 के चुनावों में जिस तेजी से दिल्ली के राजनीतिक पटल पर चमके कई बड़ी पार्टियों को पसीने आ गए। कांग्रेस और भाजपा जैसे बड़े और अनुभवी दलों को केजरीवाल के चलते अपनी बरसों पुरानी नीति और नियम बदलने पर मजबूर होना पड़ा।
'मैं अवसरवादी नहीं'
आमतौर पर केजरीवाल के खिलाफ झंडा उठाने वाले उन्हें अन्ना का विश्वासघाती कहते हैं। लेकिन बहुत ही कम लोगो को पता होगा कि केजरीवाल ने अन्ना को धोखा नहीं दिया। लोकपाल आंदोलन केजरीवाल का सपना था और केजरीवाल ने अपने इस आंदोलन को सफल बनाने के लिए अन्ना का सहयोग लिया। अन्ना लोकपाल आंदोलन के मुखौटे तो हो सकते हैं लेकिन इस आंदोलन का रचयिता केजरीवाल ही था।
विडंबना ही रही कि लोकपाल आंदोलन की कथित सफलता के बाद अन्ना को आंदोलन का प्रणेता और केजरीवाल को इस आंदोलन का खलनायक समझा गया। केजरीवाल को बार बार लोकपाल आंदोलन का खलनायक कहे जाने पर अन्ना हजारे भी कई दफा कह चुके हैं कि राजनीति में न आने का फैसला मेरा अपना निजी था और इस फैसले में केजरीवाल को शामिल करना नाइंसाफी है।
कॉमनवेल्थ खेल और लोकपाल आंदोलन
भारतीय प्रशासनिक सेवा में बतौर इनकम टेक्स अफसर बनकर काम कर रहे केजरीवाल ने राजनीति में आने का मन 2010 तक नहीं बनाया था। लेकिन राष्ट्रकुल खेलों के प्रति दिल्ली की जनता की बेरुखी ने केजरीवाल को जनता के मूड का इशारा किया। केजरीवाल दिल्ली के मिडिल क्लास का मूड जानने के लिए बाहर निकले।
उन्होंने देखा कि दिल्ली की आम जनता खेलों पर अथाह पैसा खर्च किए जाने पर दुखी है और दूसरी तरफ इतना पैसा खर्च करके भी अन्तरराष्ट्रीय मीडिया में भारत की लानत मलानत हो रही है। केजरीवाल ने देखा कि खेलों की आड़ में जमकर भ्रष्टाचार हुआ और जनता का पेट काट लिया गया।
सरकारी पद पर रहते हुए भी केजरीवाल सरकारी विभागों में हो रहे भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान चलाने के चलते विख्यात हो चुके थे। कॉमनवेल्थ खेलों के दौरान केजरीवाल ने सरकारी विभाग से अलग हटकर जनता के बीच भ्रष्टाचार और उसके खिलाफ मजबूत हो रहे विरोध को आंकने की कोशिश की।
केजरीवाल को मिला जगह बनाने का मुद्दा
बस फिर क्या था, केजरीवाल को राजनीति में जगह बनाने के लिए एक अदद मुद्दा मिल चुका था। हालांकि इसे मौका कहना मौकापरस्ती होगी क्योंकि केजरीवाल ने इस मुद्दे को मौका बनाने के लिए बहुत मेहनत की। अरविंद ने लोकपाल के प्रारूप को लेकर तरह तरह के लोगों से बातें की।
रात रात भर जाककर प्रारूप तैयार किए और देश के एक्सपर्ट और बुद्धिजीवियों से रायशुमारी लेकर लोकपाल का ड्राफ्ट तैयार किया। जानकार बताते है कि कई कई दिन तक बिना नहाए ये शख्स लोकपाल की कॉपियों का गट्ठर लिए विशेषज्ञों से मुलाकातें करता। इन मुलाकातों में कानूनविद, समाजसेवियों के साथ साथ आर्थिक जगत के दिग्गज भी शामिल थे।
इसी दौरान किरण बेदी और संतोष हेगड़े जैसे लोग अरविंद के साथ आए। अरविंद की टीम ने संशोधित जनलोकपाल को अपने ही जैसे विचार वाले लोगों में बांटना शुरू किया। अच्छा प्रयास था और जाहिर तौर पर प्रतिक्रिया भी अच्छी ही मिली।
1968 में संसद में पहली बार लोकपाल का आइडिया रखने वाले पूर्व कानून मंत्री शांति भूषण ने एक बार कहा था 'लोकपाल बिल तो बहुत पहले से था लेकिन अरविंद ने इसे एक बेहतर और प्रभावी जनलोकपाल में तब्दील कर दिया।'
दिसंबर 2011 में संशोधित लोकपाल का ड्राफ्ट मंजूरी के लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पास भेजा गया तो समूह के लोगों के साथ साथ अन्ना हजारे के भी इस पर हस्ताक्षर थे।
मंदिर के कमरे से जंतर-मंतर तक
सरकार की तरफ से कोई जवाब नहीं आया और फरवरी माह में किरन बेदी और केजरी महाराष्ट्र जाकर अन्ना से मिले। केजरीवाल अन्ना की सामाजिक प्रतिष्ठा को भली भांति पहचानते थे। केजरीवाल समझते थे कि अन्ना महाराष्ट्र के साथ साथ देश की जनता की नजर में भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग लड़ने वाला जाना माना चेहरा है। केजरीवाल और किरन बेदी ने अन्ना से पूछा कि क्या वो लोकपाल ड्राफ्ट पर सरकार के जवाब को लेकर अनशन पर बैठ सकेंगे।
अन्ना ने महाराष्ट्र में अपने समर्थकों से पूछा - क्या लोकपाल के लिए मुझे अनशन करना चाहिए, जवाब हां में मिला।
केजरीवाल खुद बताते हैं 'रालेगण सिद्धी के संत यादव बाबा मंदिर के छोटे से कमरे में अन्ना और केजरीवाल ने तय किया कि अप्रैल माह में जंतर मंतर पर अन्ना आमरण अनशन शुरू करेंगे। केजरी ने तय किया कि अनशन वर्ल्ड कप के खत्म होने और आईपीएल के शुरू होने के बीच किसी दिन शुरू होगा।
ग्रुप का एक सदस्य याद करता है - अनशन का दिन सोच समझकर शनिवार रखा गया। केजरी जानते थे कि कामकाजी मिडिल क्लास वर्ग छुट्टी के दिन ही वहां आ सकता है। केजरी की सोच सच निकली और इन दो दिनों में भारी भीड़ ने आंदोलन को एक नई पहचान दी।
आंदोलन के शुरू के दिनों में अरविंद को काम करने के लिए कई वालंटियरों का तोहफा मिला। कई सेवानिवृत ब्यूरोक्रेट्स और पत्रकार भी इस आंदोलन में शामिल हुए। इसी दौरान केजरी को मनीष सिसौदिया का साथ मिला।
आंदोलन के लिए बड़े बड़े बैनरों पर गांधी जी के साथ साथ अन्ना की तस्वीरें लगाई गई। ये केजरी की ही योजना थी कि अन्य सदस्यों की तस्वीरें बैनर और पोस्टरों पर न रखी जाएं।
और केजरीवाल ने सुधारी भूल
जनता के बीच संदेश पहुंचा कि गांधीवादी अन्ना लोकपाल के लिए आमरण अनशन करने जा रहे हैं। माहौल बन गया था और आंदोलन सफल था। मंच अन्ना संभाल लेते थे और बैक स्टेज पर केजरी काम कर रहे थे। मीडिया अटेंशन, पत्रकार वार्ता, नीति, सब कुछ देखना था और कहें तो केजरी ने अच्छी तरह से हैंडल कर रखा था। सरल और सीधेसाधे अन्ना पत्रकारों के तीखे और गोल मोल टाइप के प्रेक्टिकल सवालों के जवाब नहीं दे पाते थे, लिहाजा उनके बगल में बैठकर केजरी अन्ना को मीडिया से भिड़ने के सूत्र बताते।
आंदोलन के दौरान मंच पर केजरी हमेशा अन्ना की बगल में देखे गए। कभी उनके कान में कुछ फुसफुसाते तो कभी उनके साथ छोटी छोटी पर्चियों का आदान प्रदान करते।
टीम के सदस्य भी मानते हैं कि केजरी ने कई मौकों पर आपा खो दिया। सभी नेताओं को चोर कहने वाले केजरीवाल जब बोल गए 'सभी जज भ्रष्टाचारी हैं,' तभी बगल में खड़े प्रशांत भूषण उनके कान में फुसफुसाए, 'सभी नहीं', तुरंत केजरी ने भूल सुधार की।
लोकपाल आंदोलन कब अन्ना आंदोलन में बदल गया, पता ही नहीं चला। केंद्र सरकार बिल पर रजामंदी और पारित कराने के वायदे के बीच लोकपाल की मुहिम और टीम अन्ना में बिखराव ला चुकी थी। सरकार के रवैये पर अन्ना की संतुष्टि और अरविंद की असंतुष्टि अब तक जारी है।
सुर्खियों में रहने का हुनर
यहां तक कि विरोधी भी मानते हैं कि केजरीवाल को सुर्खियों में बने रहने का हुनर आता है। बड़े और रंगीन वादों के उलट अरविंद रोजमर्रा के मुद्दों की बात करते हैं। अपनी हर बात दूसरी पार्टी से शुरू करने वाले केजरीवाल निजी मुद्दों पर हमले करने से बचते हैं।
अपने दोस्तों और बेचमेट्स की नजर में अन्तरमुर्खी केजरवाल प्रतिद्वंदियों की नजर में मुंहफट हैं। उनके बैच के जावेद अहमद खान की नजर में अरविंद बेहद शांत व्यक्ति है। वो ज्यादातर समय अपने कमरे में गुजारता था, लेकिन साथी अफसरों को अरविंद की ये बात पसंद नहीं थी। वो अपने ज्यादातर काम खुद करता था। यहां तक कि चपरासी को भी सबसे कम आवाज लगाने वालों में अरविंद शामिल था।
'भ्रष्टाचारी का मोबाइल पर स्टिंग कर लो, हम उसे जेल भेज देंगे' जैसे संवाद आम आदमी को उत्साहित कर देते हैं लेकिन दूसरी पार्टियों को ये छिछोरे लगते हैं।
मूंछें, मफलर और खांसी
जानने वाले कहते हैं कि केजरी जितना सामान्य और आम दिखते हैं, उतने हैं नहीं। दरअसल उनकी चैक वाली कमीज, नेवी ब्लू स्वेटर, मफलर और वैगनआर, सब उनके इमेज मैनेजिंग टीम की योजना है।
क्या वाकई केजरीवाल इतने आम हैं कि वो कोई बड़ी गाड़ी नहीं खरीद सकते। जानकार बताते हैं कि नीले रंग की वैगेनार ही उनकी पहचान नहीं हैं वो इतने पैसेवाले तो हैं ही कि दूसरी गाड़ी ले सके। लेकिन ये गाड़ी उनकी आम छवि को बनाने में कारगर है सो इसी से घूम रहे हैं।
केजरीवाल की खांसी राजनीतिक हलकों में मजाक बन गई है। हालांकि केरजीवाल कहते हैं कि ये खांसी इलाज के बावजूद उनका साथ नहीं छोड़ रही है। ऐसे में जब एक एक करके केजरीवाल के कई सहयोगियों ने उनका साथ छोड़ दिया, उनकी खांसी ज्यों की त्यों साथ है। कोई भी इंटरव्यू देख लीजिए, हर रैली और सभा में केजरी की खांसी जब तब उठ खड़ी होती है।
दूसरे की नहीं सुनते?
केजरी हमेशा जल्दी में क्यों रहते हैं। उन पर दूसरा सवाल ये उठता है कि वो किसी की सुनते ही नहीं। हालांकि उन्हें हमेशा यह सलाह दी जाती है कि शांत रहकर सोचिए, जल्दबाजी मत कीजिए लेकिन अरविंद उतावलेपन में कई बार बहक जाते हैं।
इंडिया अगेंस्ट करप्शन के सदस्य शेखर सिंह बताते हैं कि केजरी हमेशा जल्दी में रहते हैं। 'वो (अरविंद) वही करते हैं जो उन्हें सही लगता है। कहीं न कहीं केजरी को ये शंका रहती है कि दूसरा व्यक्ति कैसी सलाह देगा और क्या वो उनके खिलाफ तो नहीं जाएगा। कुल मिलाकर केजरी को विश्वासघात का डर हमेशा सताता है, वो अपने बेहद करीबियों पर भी जल्दी भरोसा नहीं करते।
बच्चों की कसम और यू टर्न
अरविंद पर यूटर्न लेने के आरोप लगते रहे हैं। पहले जिस कांग्रेस को भ्रष्टाचारी कहा, बाद में उसी के समर्थन से सरकार बनाई (हालांकि राजनीतिक पंडितों की नजर में इसमें कुछ अलग नहीं, सभी पार्टियां ऐसा करती हैं), पहले कहा - सरकार नहीं बनाएंगे, बाद में मोबाइल संदेशों के आधार पर सरकार बनाई। इस पर केजरीवाल का स्पष्ट कहना है कि बच्चों की कसम से ज्यादा दिल्ली का हित उनके सामने खड़ा था और दिल्ली के हित में फैसला किया। अब इस पर क्या कहेंगे।
'टोपी वाले अंकल'
दिल्ली की जनता के बीच केजरीवाल कहां विख्यात तो कहीं कुख्यात रहे हैं। लेकिन कुछ भी कहें भारतीय राजनीति में टोपी को एक बार फिर से जगह दिलाने वाले केजरीवाल ने लोगों के दिल में जगह बनाई है और 2015 के ये विधानसभा चुनाव इसकी बानगी है। विरोधी पार्टियां आरोप लगाती हैं कि केजरी जनता को टोपी पहना रहे हैं लेकिन कुछ ही समय बाद इन दलों के समर्थक टोपियां लगाए दिखते हैं।
केजरीवाल को निसंदेह यह श्रेय मिलना चाहिए कि उन्होंने भारत में दशकों से चली आ रही राजनीति में आमूल चूल परिर्वतन करने की दिशा में पहला कदम रखा है।
परंपरागरत राजनीति से अलग हटकर लोकल मुद्दों और लोकल भाषा के बल पर दिल्ली जैसे शहर की जनता को प्रभावित करना आसान नहीं है। केजरी ने बड़े बड़े वायदों की अपेक्षा छोटे छोटे लोकल मुद्दों के बल पर जनता के बीच जो पहुंच बनाई है वो कई सालों तक रहने वाली है।